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________________ जो निमित्त मिलते हो प्रचल हो उठते हैं। संभूति मुनि, रयनेमि आदि के पौराणिक उदाहरण हमारे सामने है हो।' मनोविज्ञान के क्षेत्र में जिसे काम कहा गया है, धर्मशास्त्र के क्षेत्र में वही कामना के नाम से जाना जाता है। दोनों हो मूल प्रवृत्ति हैं। दोनों के मूल में अतीत के संस्कार हैं, इच्छायें हैं । इच्छाओं को ही परिष्कृत करने के लिए धर्म का उपयोग किया जाता है तभी यह वीतराग और सर्वज्ञ बन पाता है। काम और इच्छा का परिष्कार करने वाला पारिवामिक भाव है चैतन्य का अनुभव है। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने चेलन के तीन पक्ष माने हैं - ज्ञानचेतना, कर्मफलचेतना और कर्मचेतना । मनोविज्ञान की दृष्टि से इन्हें हम क्रमश: ज्ञानात्मक, भावात्मक और सकल्पात्मक कह सकते हैं। प्रथम दो चेतनायें कर्मबन्धन में कारणभूत नहीं होती पर तीसरी चेतना बन्धन का कारण बनती है। राग-द्वेष भावों का जन्म इसी कर्मचेतना से ही होता है। आचारांग का बनेगचित बलु अयं पुरिसे' (3.1.42) यह कथन चित्त की यथार्थता को अभिव्यक्त करता है जो मनोविज्ञान का प्रस्थापक बिन्दु है । यही चित्त कर्मचेतना को उत्पन्न करता है। उसमें कुछ प्रशस्त होते है और कुछ अप्रशस्त । वे सब सस्कार के पदचिह भी छोड़ जाते हैं, जिन्हें अचेतन कहा जाता है। फ्राइड ने मन के तीन स्तरों की कल्पना की है - चेतन, अवचेतन और अचेतन । अचेतन मन दमित इच्छाओ का संग्रहालय है जो स्वप्न और मनोविकृतियों को जन्म देता है। राग-द्वेष रूप कषाय की पृष्ठभूमि में वे मनोविकृतियों पनपती रहती हैं। फ्रायड ने जिसे लिबिडो नाम दिया था, जैनदर्शन उसे ही कामना शब्द का प्रयोग कर उसे ससार का मूल कारण मानता है। यह कषाय मोहनीय का बीजतन्त्र है। इस दृष्टि से दोनों में समानता दिखाई देती है। अचेतन मन के माथ ही सूक्ष्म शरीर रूप कर्म और सस्कार जुड़े हुए हैं। यही संस्कार आनुवशिकता और जीन्स के सिद्धान्तों को समझने में सहयोगी बनते हैं। कषाय से ग्रस्त व्यक्ति का व्यक्तित्व मूर्खता और मूढता से भरा रहता है । मूर्खता का अर्थ है, अज्ञानता और मूढता का अर्थ है मूछाग्रस्तता। ये दोनों कार्य क्रमशः ज्ञानावरण और दर्शनावरण के हैं। एक ज्ञान प्राप्ति में अवरोधक बनता है तो दूसरा आचरण का पालन नहीं करने देता । व्यक्तित्व के विकास के लिए दोनों तत्त्व अवरोधक बन जाते है। ज्ञान का विकास प्रज्ञा से, दर्शन से होता है और विविध प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। कषाय एक भावदशा है जिससे व्यक्तित्व की पहचान होती है। उसमें ज्ञान, अनुभूति और प्रयत्न का संयोग होता है। राग-द्वेष उसके मूल भाव हैं । उमास्वामी ने इच्छा, मूर्छा, काम, स्नेह, मृद्धता, ममता आदि को राग कहा और चित्त में रहने वाली घृणा की वासना को द्वेष कहा है। ये दोनो कषाय के कारण हैं, कर्मो के श्लेषक बन्धक हैं। क्रोधादि रूप कलुषता ही कषाय है जो आत्मा के स्वाभाविक रूप को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। कषाय की सघनता आदि की दृष्टि से 16 भेद हैं - 1. अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ । 2. अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । 3. प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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