SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • आधुनिक मनोविज्ञान तथा प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचते हैं ____ 1. भारतीय मनोविज्ञान दर्शन परक है, जहां दर्शन का सम्बन्ध अध्यात्म से है पर आधुनिक मनोविज्ञान प्रायोगिकता के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है। उसे अध्यात्म से कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। 2. भारतीय मनोविज्ञान में आत्मा को केन्द्रबिन्दु के रूप में देखा गया है। वहाँ विकारी भावों से मुक्त हो जाने पर निर्वाण प्राप्ति की बात कही गई है। पर आधुनिक मनोविज्ञान में सवेगों का स्थान है । पुनर्जन्म के सन्दर्भ में वहाँ मतभेद है। आत्मानुभूति का वहाँ कोई स्थान नहीं। ___ 3. पश्चिमी मनोविज्ञान में अन्तर्दर्शनपद्धति (Intraspection) की प्रधानता है पर भारतीय मनोविज्ञान में सहजबोध (Intation) को मुख्य माना जाता है। आत्मनिरीक्षण परस्पर विरोधी होने से अवैज्ञानिक माना जाने 4. प्रारम्भ में भारतीय मनोविज्ञान के समान पाश्चात्य मनोविज्ञान के लगभग मभी सम्प्रदायों में भी आत्मा एक केन्द्रीय तत्त्व के रूप में माना जाता था। पर बाद में उसके स्थान पर मन को स्वीकार किया गया और आत्मा को धार्मिक और दार्शनिक प्रत्यय कहा गया। 5. आधुनिक मनोविज्ञान मे चिकित्सात्मक विधि का प्रयोग फ्राइड आदि मनोवैज्ञानिको ने किया पर ऐसी विधि प्राचीन मनोविज्ञान के क्षेत्र मे नहीं मिलती। 6. आधुनिक मनोविज्ञान का क्षेत्र रचनात्मक कार्यवादी व्यवहारवादी, माहचर्य, मनोविश्लेषण, व्यक्तिवादी आदि रूपों में विस्तृत हो गया है जो प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान मे नही दिखाई देता। वर्शन में मन और कर्म - __ जैनदर्शन के अनुसार मन स्कन्धात्मक है। उसे अणु प्रमाण नहीं माना जा मकता । अन्यथा सम्पूर्ण इन्द्रियों से अर्थ का ग्रहण नहीं हो सकेगा। वह तो एक सूक्ष्म आभ्यन्तरिक इन्द्रिय है जो सभी इन्द्रियो के सभी विषयो को ग्रहण कर सकता है।सक्षमता के कारण ही उसे अनिन्द्रिय भी कहा गया है। उसका कोई बाह्याकार भी नहीं है। मन के दो भेद हैं - द्रव्यमन. 'ये पौषमलिक है और भावमन जो इन्द्रिय के समान लब्धि और उपयोगात्मक (ज्ञानस्वरूप) है। जैनदर्शन में कर्म को पुद्गल माना गया है। आत्मा और पुद्गल का अनादिकालीन सम्बन्ध है । वह द्वैतवादी दर्शन है। उसके अनुसार जड़ और चेतन का संयोग संसार है और उनका वियोग मोक्ष है । चूकि हर ससारी आत्मा कथञ्चित मूर्त है इसलिए मूर्त का मूर्त पुद्गल कर्म के साथ संयोग सम्बन्ध अस्वाभाविक नही है । अमूर्त ज्ञान पर मूर्त मादक द्रव्य अपना प्रभाव छोड़ते ही हैं। कर्म पुदगल में आसव नाम की एक ऐसी ऊर्जा है जो सतत् प्रवाहित होती रहती है। यह आसव मन, और काय रूप योग से होता है। योग से कर्म वर्गणायें आकर्षित होती हैं। और तदनुसार आत्म-परिणाम बन जाते जिलेश्या का अभिधान दिया जाता है। योग एक शरीर प्रवृत्ति है। शरीर के बिना योग हो नहीं सकता। इसलिए लेल्या भीर मामकर्म के उदय का परिणाम माना जाता है । क्रिया-प्रतिक्रिया के चक्र में बना रागादि संस्कार ही कर्म है। शरीर पर अंकित ये संस्कार ही पुनर्जन्म के कारण बनते हैं। संस्कार, धारणा, वृत्ति, आदत आदि समानार्थक शब्द
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy