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________________ जैन कर्म-सिद्धान्त और आधुनिक मनोविज्ञान * प्रो. भागचन्द जैन 'भास्कर' आचार्य उमास्वामी या उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र एक युगातीत ग्रन्थ है जिसे हम समग्र जैन सिद्धान्त के सार के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। कहीं-कहीं उसे तत्त्वार्थाधिगम की भी सज्ञा दी गई है। दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों सम्प्रदाय इसे समान रूप से सम्मान करते है, भले ही उनमे अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार दृष्टि निहित रही है। दिगम्बर परम्परा उन्हें आचार्य कुन्दकुन्द का शिष्य मानती है । अत: उनका समय ईमा की प्रथम शताब्दी माना जा सकता उमास्वामी के इस ग्रन्थ में दश अध्याय और 357 सूत्रों में तत्त्वार्थ का सुन्दर वर्णन हुआ है। दिगम्बर परम्परा में इस पर लिखी गई उपलब्ध टीकाओ में तीन टीकायें विशेष प्रसिद्ध हई है - पूज्यपाद की तत्त्वार्थवृत्ति या सर्वार्थसिद्धि, भट्राकलंक का तत्त्वार्थवार्तिक और आचार्य विद्यानन्द का तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक । इसी तरह श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी स्वोपज्ञ भाष्य, सिद्धसेनीया टीका और हरिभद्रवृत्ति नामक टीकाये लोकप्रिय हुई हैं। तस्वार्थसूत्र का मूल आधार आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ रहे है । इसके छठे अध्याय में 27 सूत्र हैं जिनमें आम्रव तत्त्व का सांगोपांग विवेचन हुआ है। इससे पूर्व पचम अध्याय मे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन षड् द्रव्यो का वर्णन हुआ है। इसका तात्पर्य है कि आस्रव तत्त्व का आधार यही षड् द्रव्य हैं । आधुनिक मनोविज्ञान का क्षेत्र भी यही आसव तत्व रहा है। इसलिए प्रस्तुत आलेख में आसव तत्त्व और मनोविज्ञान का संयुक्त अध्ययन करने का प्रयत्न किया जायेगा। यहाँ हमने प्रत्यक्ष-परोक्ष तथा संवर-निर्जरा के सन्दर्भ में मनोविज्ञान की चर्चा को छोड दिया है। बहे भयानका सारांश जैनधर्म के अनुसार सारा ससार कार्माणवर्गणाओं से भरा हुआ है। मन, वचन और काय रूप योग-क्रिया ही आसन है। इसी योग-क्रिया से ही आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है और ज्ञानावरणादि कर्मो का आसव (आगमन) प्रारम्भ हो जाता है। जिस परिणाम से आत्मा के कर्म का आम्रव होता है वह भावानव है और ज्ञानावरणादि कर्मों के योग्य पुदगलवर्गणा को द्रव्यासव कहा जाता है। भावकर्म ही द्रव्यकर्म का संग्राहक है और द्रव्यकर्म भावकर्म के लिए भमिका तैयार करता रहता है। इन दोनों में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बना रहता है। आचके दो भेद हैं-1.शुभ योग, जो पुण्य का कारण है और 2. अशुभ योग, जो पाप का कारण है। इन आम्रवों के कारणों में कषाय का विशेष हाथ होता है। कषाय के होने पर कर्म का बन्ध सांपरायिक कहलाता है और निष्कषाय तुकाराम चाल, सदर, मानपुर - 440001
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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