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________________ 185 5. पृथ्वी का धरातल तिर्यक् लोक में जम्बूद्वीप का याली के आकार का गोल तथा चपटा है । अन्य द्वीप-समुद्र वलयाकार रूप से एक दूसरे को घेरे हुए हैं। 81 6. जैन भूगोल में स्वर्गों और गैरकों का अस्तित्व माना गया है तथा बड़े विस्तार के साथ उनका वर्णन भी किया गया है। 3. पृथ्वी स्थिर है। सूर्य-चन्द्र अपनी-अपनी बीथियों में सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करते हैं। इससे दिन-रात होते हैं। जम्बूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्रमा हैं, जो भामने-सामने रहकर सुमेरु की परिक्रमा करते हैं। जम्बूद्वीप में 180 योजन भीतर से लवणसमुद्र में 330 योजन तक 510 योजन में चन्द्रमा की 15 और सूर्य की 184 वीपियाँ हैं। ये प्रतिदिन एक-एक गली में होकर भीतरी से बाहरी गली में से सुमेरु के चारों ओर घूमते हैं। चन्द्रमा पहली अन्तिम 15 वीं बीथी में 15 दिन में पहुँचता है तथा अन्तिम से प्रथम में 15 दिन में वापिस आता है। इससे कृष्णपक्षशुक्लपक्ष होते हैं। सूर्य 6 माह में पहली वीथी से अन्तिम वीथी में पहुँचता है और 6 माह में वापिस पहली वीथी में आता है। इससे ऋतुएँ बदलती हैं। यही उत्तरायण दक्षिणायन कहलाता है। 8. इसमें मात्र एक राजू लम्बे-चौड़े तिर्यक, लोक में जम्बूद्वीप से स्वयंभूरमणद्वीप और लवणसमुद्र से स्वयंभूरमणसमुद्र तक असंख्यात द्वीप और समुद्र विद्यमान हैं। समुद्र अत्यन्त गहरे पातालों से युक्त है। द्वीपों में हजारों योजन ऊँचे पर्वत भी विद्यमान हैं। जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है। 9. इसके असीमित हैं, जिनकी भाव-भासना मात्र ही की जा सकती है। 10. इसके सभी तथ्य केवली प्रत्यक्ष हैं। 11. जैनभूगोल के अनुसार भरत ऐरावत क्षेत्रों के 10 आर्यखण्डों को छोड़कर शेष सभी क्षेत्र अवस्थित हैं। इनमें अवसर्पिणी के 1, 2, 3, 4, 5 वें काल जैसी वर्तना भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में सदाकाल रहती है। षट्काल परिवर्तन केवल भरतऐरावत क्षेत्रों के आर्यखण्डों में ही होता है तथा छठे के अन्त में प्रलय और उत्सर्पिणी के प्रथम काल के प्रारम्भ में सुवृष्टियों के उपरान्त सुकाल आता है। 12. जैन भूगोल में भी अपने मापक हैं, जो आज के मापकों से भिन्न हैं। जैसे राजू, जगच्छ्रेणी, पल्य-पल्योपम, सागर-सागरोपम, सूची, प्रतर, योजन, कोश, धनुष आदि । ये सभी अद्भुत एवं आश्चर्यकारी हैं तथा हमारी भाव -भासना के विषय हैं। - उपसंहार • आधुनिक वैज्ञानिकों ने निरीक्षण-परीक्षण, विश्लेषण करके जो भूगोल- सगोल सम्बन्धी तथ्य संग्रहीत किये हैं वे चूँकि अनुमान पर आधारित है, इसलिए विवादित भी हैं। मात्र पृथ्वीमण्डल की रचना प्रत्यक्ष होने से सर्वसम्मत है। यंत्रों से प्राप्त जानकारी की अपेक्षा योगियों की दृष्टि अधिक विश्वस्त एवं विस्तृत रही है। आवश्यकता है किं विशेषज्ञ समुदाय प्राचीन एवं आधुनिक भूगोल के सम्बन्ध में आपसी मेलकर बैठाकर नये तथ्यों को उजागर कर सकते हैं।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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