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________________ - * यही यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि डोनर पेरेन्ट एवं क्लोन दोनों ही अलग-अलग अस्तित्व के स्वतंत्र जीव है चूंकि डोनर के शरीर की प्रत्येक कोशिका स्वयं में परिपूर्ण है अत: उसका न्यूक्लियस अलग होकर एक स्वतंत्र एवं परिपूर्ण इकाई के रूप में विकसित हो गया। लोग का आयुष्य, भावनायें एव क्रियाविधियाँ भी अपने डोनर से भिन्न होगी। चूंकि फलोल बनाने के लिये भूल के गर्भाशय में रखा गया है अस; जैनधर्म के आधार पर इस प्रकार के पचेन्द्रिय जीवों के गर्भ जन्म है। शेष चतरिन्द्रिय तक के जीवों के क्लोन तैयार करने के लिये उचित वातावरण ही काफी होता है अत: उनके सम्मूर्छन जन्म की पुष्टि होती है। लिंग (वेद) के लिये तस्वार्थसूत्र में निम्न वर्णन है - नारकसम्मनिो नपुंसकानि ॥ 50॥ अर्थात् नारक और सम्मूर्छन नपुंसक होते हैं। चूंकि विज्ञान अभी नरकगति की विवेचना नहीं कर सका है अत: यहाँ केवल सम्मूर्च्छन जीवो की ही चर्चा करेंगे। वनस्पतिकायिक जीवो में मनुष्यो अथवा पशुओं जैसा लिग भेद नहीं होता है। उनकी बाह्य आकृति को देखने पर नर अथवा मादा की पहिचान नहीं हो पाती है। जिन वनस्पतियों मे परागण से निषेचन होता है उनमें अवश्य पुष्प आने के पश्चात कुछ समय के लिये जननांग विकसित हो जाते है जो कि परागण एवं निषेचन के तुरन्त पश्चात् नष्ट हो जाते हैं अर्थात् यह एक अस्थायी एवं अल्पकालिक क्रिया है। स्थायी जननागों का अभाव होने से उन्हें नर अथवा मादा की श्रेणी में न रखकर नपुसकवेद ही कहा गया है। आठवें अध्याय में नामकर्म के भेद इस प्रकार बताये गये हैं - गतिवाहिशरीरामोपाइनिर्माणबबनसंपात स्वानसंहननस्पर्शरसमन्यवर्णानुएव्यांगुरूलएपचासपरवालासपोमोसोवासविहायोगतचा प्रत्येकशरीरबससुभगसुस्वरशुभस्मपाप्तिसिरादेवबसपीलिसेतसमितीकरवं॥1॥ ___ अर्थात् गति, जाति, शरीर, अगोपांग, निर्माण, बन्धन, सघात, संस्थान, सहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, मानुपूर्ण, अगुरुलघु, उपचात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास और विहायोगति तथा प्रतिपक्षभूत प्रकृतियों के साथ अर्थात् साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर, स्थावर और प्रस, दुर्भग और सुभग, दुःस्वर और सुस्वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्त और पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनावेय और आदेय, अयश:कीर्ति और यश:कीर्ति एवं तीर्थकर ये बयालीस नाम कर्म के भेद हैं। उक्त में से कुछ भेदों को बायोटेक्नालॉजी के अनुसार स्पष्ट किया जा सकता है। जैसा कि पहिले बताया गया है कि जीव कोशिका के नाभिक (न्यूक्लियस) में क्रोमोसोम्स में जीन्स होते हैं। इन जीन्स की उपस्थिति, परिमाण, व्यवस्था मादि से ही शरीर रचना का निर्धारण होता है। स्वस्थ्य भरीर वाले मनुष्यों में जहाँ यह जीन्स सुव्यवस्थित होते हैं वहीं यदि इन जीन्स की स्थिति बदल जावे तो शरीर में कई विकृतियों पैदा हो जाती हैं। पूरे शरीर में हजारों प्रकार की संरचना के लिये अलग-अलग जीन्स होते हैं एक मामूली से परिवर्तन से ही आगोपाग की रचना, व्यवहार, शक्ति, स्वर, स्पर्श, गन्ध, वर्षादि में परिवर्तनमा सकते हैं। शरीरनामकर्म, अंगोपांग नामकर्म, संस्थान नामकर्म, निर्माणनामकर्म, बन्धननामकर्म, संचातनामकर्म, संस्थाननामकर्म, संहनननामकर्म, स्पर्शनामकर्म, रसनामकर्म, गन्धमामकर्म एवं वर्णनामकर्म आदिको गदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखे तो प्रतीत होता है कि यह सब नामकर्म द्वारा शरीर में जीन्स स्थापित एवं प्रभावित होते हैं।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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