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________________ 66/ तत्पार्थनामिकय अभव्यस्व भाव तो उनके था ही नहीं, अतः उसके नाश होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इस प्रकार तीन पारिणामिक भावों में से एक मात्र जीवत्व भाव ही सिद्ध परमेष्ठी के पाया जाता है। अर्थात् यह जीवत्व भाव ही एक ऐसा भाव है जो संसारी और मुक्त दोनों प्रकार के जीवों में पाया जाता है। अतः वस्तुतः जीवत्व भाव ही जीव का असाधारण भाव है। - आचार्य पूज्यपाद ने अपने सर्वार्थसिद्धि नामक ग्रन्थ में जीव के पाँच भावों का विवेचन करने के पश्चात् लिखा है कि - ' एते पद्म भावा असाधारणा जीवस्य स्वतत्त्वम् उच्यन्ते । ' अर्थात् वे ये पाच भाव असाधारण हैं, इसलिये जीव के स्वस्व कहलाते हैं। इसी का अनुसरण करते हुये आचार्य अकलकदेव अपने तस्वार्थवार्तिक नामक ग्रन्थ में लिखते हैं कि- 'ते भावा जीवस्य स्वतत्वम् - स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वम्, स्वो भावोऽसाधारणो धर्मः ।" अर्थात् वे भाव जीव के स्वतस्त्व हैं। असाधारण भाव है। आचार्य विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालकार में लिखा है कि- 'तस्य (जीवस्य) स्वम् असाधारणं तत्त्वम् पशमिकादयः पच भावाः स्युः । ....... प्रमाणोपपन्नास्तु जीवस्वासाधारणाः स्वभावाः पीपशमिकादयः ।'' इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट करते हुये विद्वत्प्रवर पं. माणिकचन्द्र जी कौन्देय लिखते हैं कि - 'उस जीव के निज आत्मस्वरूप हो रहे औपशमिक आदिक पाँच भाव तो स्वकीय असाधारण तत्त्व हैं, जो अन्य अजीव माने गये पुद्गल आदि में नहीं पाये जाकर केवल जीव में ही पाये जायें, थे जीव के असाधारण भाव हो सकेगे। प्रतिपक्षी कर्मों के उपशम होने वाले या कर्मों के क्षय से होने वाले अथवा उदय, उपशम आदि की नहीं अपेक्षा कर जीव द्रव्य के केवल आत्मलाभ से अनादि सिद्ध हो रहे पारिणामिक ये तीन भाव तो जीव के निज स्वरूप है ही। साथ मे गुण या स्वभावों के प्रतिपक्षी हुये कर्मों की सर्वघाती प्रकृतियों के उदय क्षय और उपशम होने पर तथा देशघाति प्रकृतियो के उदय होने पर हो जाने वाले कुशान, मतिज्ञान, चक्षुर्दर्शन आदि क्षायोपशमिक भाव तथा कतिपय कर्मों का उदय होने पर उपजने वाले मनुष्यगति, क्रोध, पुवेद परिणाम, मिथ्यात्व आदिक औदयिक भाव भी आत्मा के निज तत्त्व है। क्योंकि क्षायोपशमिक और औदयिक भावों का भी उपादान कारण आत्मा ही है। कर्मों के क्षयोपशम या उदय को निमित्त पाकर आत्मा ही मतिज्ञान, क्रोध आदि रूप परिणत हो जाता है। आत्मा के चेतना गुण की पर्याय मतिज्ञान, कुमतिज्ञान आदि है और आत्मा के चारित्रगुण का विभाव परिणाम क्रोध आदि है। केवल निश्चयनय द्वारा शुद्ध द्रव्य के प्रतिपादक समयसार आदि ग्रन्थों में भले ही मतिज्ञान, क्रोध आदि को परभाव कह दिया होय, किन्तु प्रमाणो द्वारा तत्त्वों की प्रतिपत्ति कराने वाले या अशुद्ध द्रव्य का निरूपण करने वाले श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, गोम्मटसार, राजवार्तिक आदि ग्रन्थों मे क्रोध, वेद आदि को आत्मा का स्व-आत्मक भाव माना गया है। अतः पाँचों ही भाव जीव के स्वकीय असाधारण तत्त्व हैं ।" इसी तस्व चर्चा को विस्तार देते हुए पण्डित कौन्देय जी आगे लिखते हैं कि - 'जिन गुण या स्वभावों करके पदार्थ आत्मलाभ किये हुये हैं, वे उपजीवक माने जाते हैं और उन करके आत्मलाभ कर रहा पदार्थ उपजीव्य समझा जाता है। पाँच भाव जीव के उपजीवक हैं। अनादि और सादि सहभावी क्रमभावी पर्यायों को धारने वाला जीव तत्त्व है। शुद्ध परमात्मा द्रव्य हो रहे सिद्ध भगवानों में यद्यपि औपशमिक, क्षायोपशमिक और औदयिक ये तीन प्रकार के भाव नहीं हैं। सिद्धों में पारिणामिक और क्षायिक भाव ही हैं। तथा बहुभाग भनन्तानन्त संसारी जीवों में क्षायिक भाव या औपशमिक भाव नहीं पाये जाते हैं, तो भी जिन जीवों में पाँचों भावों में से यथायोग्य दो ही, तोन हो, चारों ही अथवा क्षायिक १. सर्वार्थसिद्धि 2 / 1,252 २. वार्तिक, 2/1/6 ३. स्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार 2/1 उत्थानिका (भाग 5, पृष्ठ 2) ४. तत्वार्यश्लोकवार्तिकालंकार 2/1 उत्थानिका का हिन्दी अनुवाद (भाग 5, पृष्ठ 2)
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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