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________________ 64 जड़ पदार्थ न तो सर्वथा नित्य है और न ही सर्वथा क्षणिक अर्थात् अनित्य है, अपितु उनमें नित्यता और अनित्यता - ये दोनों धर्म (गुण) सापेक्षदृष्टि से एक साथ पाये जाते हैं, वैसे ही आत्मा (जीव) एक साथ लिव्य और अनित्यं परिगमन रूप है। अतः ज्ञान-सुख आदि परिणाम आत्मा (जीव) के ही हैं और आत्मा के परिणामों की ही भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ उसके भाव हैं। ये भाव पाँच प्रकार के होते हैं- औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक (मिश्र) औदयिक और पारिणामिक । औपशमिक भाव - आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारण विशेष से प्रकट न होना उपशम है और यह उपशम केवल मोहनीयकर्म का होता है। अतः मोहनीय कर्म के उपशम से आत्मा में होने वाले भाव औपशमिक भाव हैं। क्षायिकभाव - कर्मों के आत्यन्तिक क्षय हो जाने पर आत्मा में होने वाले भाव क्षायिक भाव हैं। क्षायोपशमिक (मिश्र) भाव कुछ कर्मों का क्षय होने और कुछ कर्मों का उपशम होने पर आत्मा में होने वाले मिले भाव क्षायोपशमिक अर्थात् मिश्र भाव हैं। teau भाव - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्मों के उदय में आने पर होने वाले आत्मा के भाव औदयिक भाव हैं। इन चारों भावों के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि यतः आत्मा अमूर्तिक है, अतः अमूर्तिक के साथ मूर्त पुद्गल कर्मों का बन्धन सम्भव नहीं है, अतएव तत् तत् रूप भावों का होना भी नहीं बनता है। किन्तु इसका समाधान यह है कि मनेकान्त से प्रत्येक अवस्था में आत्मा अमूर्तिक नहीं है। अपितु संसारावस्था में आत्मा कर्मबन्धन रूप पर्याय की अपेक्षा से कथञ्चित् मूर्तिक है और मुक्तावस्था में शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा आत्मा कथञ्चित् अमूर्तिक है । पारिणामिक भाव - कर्मों की अपेक्षा के बिना ही आत्मा में स्वाभाविक रूप से होने वाले भाव पारिणामिक भाव हैं। यहाँ पर यह बात ध्यातव्य है कि आत्मा चाहे संसारी हो या मुक्त, किन्तु उसमें उपर्युक्त पाँचों भावो में से कोई न कोई भाव अवश्य पाया जायेगा। जैसे सभी मुक्त जीवों में क्षायिक और पारिणामिक - ये दो भाव नियम से पाये जाते हैं। उसी प्रकार संसारी जीवों में भी कोई तीन भावों वाला, कोई चार भावों वाला और कोई पाँचों भावों वाला जीव होता है। एक या दो भावों वाला कोई भी संसारी जीव नहीं है। जो ससारी भव्य जीव उपशम श्रेणी पर आरूढ़ है उस क्षायिक सम्यग्दृष्टि के पाँचों भाव होते हैं। जो उपशम सम्यग्दृष्टि है उसके क्षायिक भाव को छोड़कर शेष चार भाव होते हैं। संसारी अभव्य जीव के क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं। औपशमिक आदि प्रथम चार भाव कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदय की अपेक्षा औपशमिक आदि संज्ञा वाले हैं और परिणमनशील होने से मात्र पञ्चम भाव पारिणामिक भाव कहा जाता है। ये पारिणामिक भाव कर्मों की अपेक्षा नहीं रखते हैं, अपितु संसारी निगोदिया जीब से लेकर अष्ट कर्मों का नाश करने वाले लोकाग्रवासी सिद्धों के भी पाये जाते हैं। इन पारिणामिक भावों की प्राप्ति हेतु किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रहती है। ये भाव जीव की निजी योग्यता के कारण होते हैं। यद्यपि जीव में अस्तित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व और अमूर्तत्व आदि अन्य भी अनेक कर्मनिरपेक्ष पारिणामिक भाव है? १. असाधारणाश्चास्तित्वान्यत्व कर्तृत्वभोक्तुस्वपर्याययस्वासर्वगतत्वानादिसन्ततिबन्धनबद्धत्व प्रदेशवत्वारूपत्वनित्यत्वादयः । - तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार 2/7 वृत्ति
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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