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________________ पों के साथ 'माणाणुवादेण मयि मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणी अभिणिबोहियणाणी सुवणाली मोहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलपाणी दि' के रूप में ज्ञान की अपेक्षा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विमंगवान, अभिनियोधिकमान, बुवज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन आठ ज्ञानों का उल्लेख मिलता है। इनमें आदि के तीन शान मिथ्याज्ञान और अन्तिम पांच शान सम्पशान हैं। शानों के ये सभी भेद ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम या क्षय से उत्पन्न होने वाले प्रान की अवस्थामों का निरूपण है। मानों का प्रमाणों में वीकरण दार्शनिक युग में उपर्युक्त आगमिक चिन्तन को आधार मानकर तत्कालीन परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापन हेतु केवलज्ञान को पूर्ण प्रत्यक्ष माना ही गया, व्यावहारिक दृष्टि से इन्द्रियजन्य ज्ञानों को भी प्रत्यक्ष कहा गया है। इस चर्चा का सर्वप्रथम प्रमाण के सन्दर्भ में सूत्रशैली में सूत्रपात करने वाले, आगमिक चिन्तन के अन्तिम आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् हुए उमास्वाति है। इनके समय तक जैनदर्शन के क्षेत्र मे धर्म और दर्शन को विवेचित करने वाला कोई स्वतन्त्र संस्कृत भाषा में सूत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था। उस समय जैनेतर दर्शनों में संस्कृत भाषा में दार्शनिक ग्रन्थ, भाष्य एवं सूत्र ग्रन्य आदि भी लिखे जा रहे थे। उमास्वाति ने जैन वाङ्मय में उस कमी को पूर्णकर सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में तत्त्वार्थसूत्र नामक सूत्रग्रन्थ का प्रणयन किया। इस ग्रन्थ में उन्होंने जैनधर्म और दर्शन का सार सूत्र रूप में निबद्ध करके प्रथमबार ज्ञानवर्षा को प्रमाण चर्चा के साथ जोड़कर प्रमाण के भेदादि का स्पष्ट प्रतिपादन किया। उन्होंने जीवादि पदार्थों के ज्ञान के लिए प्रमाण और नय को आवश्यक बताकर मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानों को प्रमाण कहा और उनका प्रत्यक्ष प्रमाण तथा परोष प्रमाण के रूप में विभाजन भी किया। इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षप्रमाण माने गये एवं अन्तिम तीन अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान मिथ्या भी माने गये। इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले मतिज्ञान को स्मृति संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध नामों से भी पुकारा गया। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद करके इनके बहु, बहुविध आदि अनेक अवान्तर भेद भी किये गये। मतिज्ञान पूर्वक होने वाले श्रुतज्ञान को दो प्रकार, अनेक प्रकार और बारह प्रकार का बताया गया । भवप्रत्यय और मायोपशम निमित्तक के भेद से अवधिज्ञान के दो भेद किये गये और मन:पर्यय ज्ञान भी ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का माना गया । कुन्दकुन्द तक जहाँ एक ओर आत्म-सापेक्ष केवलज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान कहा जाता था, तस्वार्थसूत्रकार ने वहीं आत्मसापेक्षता के अन्तर्गत अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान को मानकर प्रत्यक्ष प्रमाण कहा एवं जो पर सापेक्ष ज्ञान मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय परोक्षज्ञान माने जाते थे, उनमें से उन्होंने मति और श्रुतज्ञान को ही परोक्ष प्रमाण माना। तत्त्वार्थसूत्रकार का यह चिन्तन आपाततः आगमिक परम्परा से अलग-सा प्रतीत होता है, वस्तुतः वैसा है नहीं। आगमिक परम्परा में प्रत्यक्षत्व और परोक्षत्व ज्ञानों का किया गया है जबकि तत्त्वार्थसूत्रकार ने यह विभेद प्रमाणों का किया है। आगमिक परम्परा में ज्ञानों का प्रत्यक्षत्व और परोक्षत्व विषयाधिगम के क्रम और अक्रम पर निर्भर करता है वही तस्वार्थसूत्रकार की दृष्टि ज्ञान के कारणों का सापेक्षता और निरपेक्षता पर आधारित है। दिसम्बर आगमिक साहित्य में पंचज्ञानों की विस्तृत चर्चा की गई है, परन्तु उनका प्रमाणों में वर्गीकरण प्राप्त नहीं होता। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों में प्रमाणों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। कुन्दकुन्द ने आत्मा की शुद्धता और अशुद्धता को अमान में रखकर शान के स्वभाव ज्ञान और विभावज्ञान के रूप में दो भेद किये। उन्होंने कर्मोपाधि से रहित ज्ञान को स्वभावजाल तथा कर्मोपाधि से युक्त ज्ञान को विभाव कहा है। स्वभावज्ञान केवलज्ञान है ।यही प्रत्यक्षज्ञान है। विभावज्ञान
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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