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________________ 54/तस्वार्थला-मिका नवापास परस्पर सापेक्ष नय ही सम्यक् होते हैं, निरपेक्ष नहीं । जिस प्रकार परस्पर सापेक्ष रहकर तन्तु भादि पारूप कार्य का उत्पादन करते हैं, उसी प्रकार नय भी सापेक्ष रहकर ही सम्यग्ज्ञान रूप कार्य के कारण बनते हैं। निरपेक्ष मयों को ही मिथ्यानय, कुनय या नयाभास समझना चाहिए। यहाँ पर विशेष अवधेय है कि जिस प्रकार शक्ति की अपेक्षा निरपेक्ष तन्तु, वेमा आदि में पर का कारणपना कथंचित माना जाता है, उसी प्रकार निरपेक्ष नयों में भी शक्ति की अपेक्षा सम्यग्ज्ञान का कारणपना माना जा सकता है। इसी बात को सर्वार्थसिद्धि में निम्नलिखित शब्दों में स्वीकार किया गया है - 'अब तत्वाविषु पटाविकार्य शक्त्यपेक्षया अस्तीत्युच्यते । नयेष्यपि निरपेक्षेषु बडपभिधानरूपेषु कारणवशात् सम्यग्दर्शनहेतुत्व-विपरिणतिसभावात् शक्त्यात्मनास्तित्वमिति साम्यमेवोपन्यासस्य ।'' क्या मय सात ही है? नयों का विवेचन कहीं शब्द, अर्थ एवं ज्ञान रूप में त्रिविध हुआ तो कहीं पंचविध, सप्तविध या नवविध भी। वस्तुतः जितने भी वचनमार्ग हैं, उतने ही नय के भेद हैं। द्रव्य की अनन्तशक्तियाँ हैं। अत: उनके कथन करने वाले अनन्तनय हो सकते हैं। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के अनसार संक्षेप में नय दो -द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक विस्तार से तत्वार्थसूत्र में प्रतिपादित नैगमादिक सात तथा अतिविस्तार से संख्यात विग्रह वाले होते हैं।' निरपेक्षनय ग्रहण से उत्पन्न भ्रान्तियाँ और उनके तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी टीकाओं में प्रदत्त समाधान - , शान्ति ।. - शुभप्रवृत्ति, परिणाम एवं उपयोग से आस्रव और बन्ध ही होता है। समाधान - व्रत-प्रवृत्ति रूप भी होते हैं तथा निवृत्ति रूप भी होते हैं। अहिंसा आदि व्रतों को एकदेश प्रवृत्ति रूप होने की वजह से आचार्य उमास्वामी ने जहां उन्हें आसव के कारणों में रखा है, वहीं संयम, ब्रह्मचर्य एव तप को दस धर्मों में ग्रहण कर उन्हें संवर का कारण भी माना है तथा तप को तो निर्जरा का हेतु भी कहा है।' • , शान्ति - निमित कुछ नहीं करता है तथा निमिस के अभाव में भी कार्योपत्ति हो सकती है। निमित्त तो स्वतः मिल जाता है। समाधान - कर्मों का फलदान द्रव्य-क्षेत्रादि के निमित्त होने पर ही होता है, उसके बिना नहीं होता है । यदि किसी कर्म का उदयकाल हो तो उसका उदय तो होगा पर वह स्वमुख से उदय न होकर परमुख से उदय हो जाता है। पं. १. सर्वार्थसिद्धि, 1/334. 146. २.तस्वार्थश्लोकवार्तिक, 4/1/13 श्लोक 3-4 पृ. 215 बामपनिरोधः संवरः । स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रः । तपसा निर्जरा च । - तत्स्वार्थसूत्र 9/1-1
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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