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________________ मान, किसुचार्य मानबुलज्ञान ही है। अन्य कोई भी जान परार्थ नहीं है। इस प्रकार स्वार्थ एवं पराई प्रमाणों का भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाणों में ही अन्तर्भाव है। उनकी पृषक प्रमाणता स्वीकृत नहीं है। अनुमान आदि प्रमाणों का पृथक् कथन न करने का कारण स्पष्ट करते हुए तत्वार्थवार्तिककार ने मानानां पृथनानुगतः युवावरोधात् बार्तिक लिखा है । इसके व्याख्यान में वे स्पष्ट करते हैं कि अनुमान आदि का स्वप्रतिपत्ति काल में अनसारत में तथा पर प्रतिपत्ति काल में अक्षर भुत में अन्तर्भाव हो जाता है। इसीलिए इनका पृथक उपदेशनहीं किया गया है। आलापपद्धति आदि में जो केवलज्ञान को निर्विकल्पक तथा शेष को सविकल्पक कहा गया है, वे भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण में ही अन्तर्भूत हैं। प्राचीन परम्परा तो पॉचो ज्ञानों को दो प्रमाण रूप मानने की ही है। सम्बधान की प्रमाणता आचार्य यतिवृषभ ने 'गाणं होदिपमान कहकर स्पष्टतमा ज्ञान को प्रमाण माना है। श्लोकबार्तिक में कहा गया है मियाजानं मान सम्बगियाधिकारतः। पचा पत्राधिसंवादस्तधाता प्रमाणता॥ अर्थात् क्योंकि सूत्र में सम्यक्त्व का अधिकार अध्याहृत है, इसलिए सशयादि से युक्त मिथ्याज्ञान प्रमाण नही है। जिस प्रकार से जहाँ पर अविसंवाद है, वहाँ पर उस प्रकार प्रमाणपना है। यहाँ पर यह विशेष अवधेय है कि स्वविषय में भी मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान एकदेश प्रमाण है, अवधि आदि तीन ज्ञान पूर्णतः प्रमाण हैं । केवलज्ञान तो सर्वत्र प्रमाण है । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा भी गया है - स्था मतितज्ञान प्रमाण देशतः स्थितम् । अवम्यादि काल्वन केवलं सर्वतस्त्रि॥ प्रामाण्यवाद ज्ञान के प्रामाण्य एव अप्रामाण्य विषयक विचार को दार्शनिक जगत् में प्रामाण्यवाद कहा जाता है। ज्ञान यथार्थ है या अयथार्थ इस विचार को न्याय में प्रामाण्यग्रह कहते हैं। प्रामाण्य स्वत: है अर्थात् ज्ञानग्राहक सामग्री एवं प्रामाण्यग्राहक सामग्री एक है अथवा प्रामाण्य परत है अर्थात् ज्ञानग्राहक सामग्री पृथक् है और प्रामाण्यग्राहक सामग्री पृथक है, प्रमुखतया प्रामाण्यवाद का विवेच्य है। सांख्य दार्शनिकों का विचार है कि ज्ञान का प्रामाण्य एव अप्रामाण्य स्वत: होते हैं अर्थात् जिस प्रमाण के द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है, उसी प्रमाण के द्वारा उस ज्ञान की प्रामाणिकता या अप्रमाणिकता का भी निर्णय हो जाता है। १. तत्त्वार्थबार्तिक 1/20/15 पृ. 78 २. मालापपडति, ३.तिलोयपणती, 1/83 ४. तत्त्वावलोकवार्तिक 3/1/10/38 ५. वहीं,3/1/10/9 ६. प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांस्या: समाविता:। - सर्वदर्शनसंग्रह, सांस्यप्रकरण
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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