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________________ सम्यक्चारित्र-चिन्तामणि अवशस्य मुनेः कार्यमावश्यं हि समुच्यते । 'क' प्रत्ययविधानेन तदेवावश्यक भवेत् ॥ ३॥ यद्वावश्य च यत् कृत्यं तदावश्यकमिष्यते। समता वन्दना स्तोत्र प्रतिक्रमणमेव च ॥ ४॥ प्रत्याख्यान तनत्सर्ग इत्येतानि च तानि षट् । मुनयः श्रद्धया तानि कुर्वन्तीह दिने दिने ॥ ५॥ अर्थ-अब साधुओके आवश्यक कार्योंका कथन करता हूँ। जो रागादिकके वश नहीं है वह जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा अवश कहा जाता है। अवश मुनिका जो कार्य है वह आवश्य कहलाता है तथा स्वार्थ मे 'क' प्रत्यय करनेसे आवश्यक शब्द होता है ( न वशः अवश., अवशस्मेदम् आवश्यम् आवश्यमेव आवश्यकम् ) अथवा जो कार्य अवश्य हो करने योग्य है वह आवश्यक कहलाता है। समता, वन्दना,स्तोत्र स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये वे छह आवश्यक कार्य हैं जिन्हे मुनि प्रतिदिन श्रद्धासे करते हैं ।। २-५॥ आगे समता आवश्यकका वर्णन करते है इष्टानिष्टप्रसङ्गषु माध्यस्थ्यं यत् तपस्विनाम् । साम्यं तत् साधुभिर्जेय कारातिविनाशनम् ।। ६ ॥ साम्यभावस्य सिद्धयर्थ साधुरेवं विचिन्तयेत् । पुनः पुनश्चिन्तनेन विचारः सुस्थिरो भवेत् ॥ ७॥ अर्थ-इष्ट-अनिष्ट-अनुकूल प्रतिकूल प्रसङ्गोमे साधुओका जो मध्यस्थ भाव है उसे साधुओको साम्यभाव-समता जानना चाहिये। यह साम्यभाव कर्मरूप शत्रुओका नाश करने वाला है। साम्यभावकी सिद्धिके लिये साधुको ऐसा चिन्तन करना चाहिये क्योकि बार-बार चिन्तन करनेसे विचार अत्यन्त स्थिर-दृढ हो जाता है ।। ६-७॥ जीवे जीवे सन्ति मे साम्यभावाः सर्वे जोवाः सन्तु ये साम्ययुक्ताः। आतंरौद्रं ध्यानयुग्म विहाय कुर्वे सम्यग्भावना साम्यरूपाम् ॥८॥ पृथ्वोतोये वह्निवायू च वृक्षो युग्माक्षाया सन्ति ये जोवमेवाः।
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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