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________________ १५५ सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सेवन करना, विकारवर्द्धक गरिष्ठ वस्तुका सेवन करना और दुष्पक्वअर्धपक्व या अर्धदग्ध पदार्थको ग्रहण करना, ये भोगोपभोग परिमाण नामक तृतीय शिक्षावतके अतिचार है। इनका परित्याग करना चाहिये क्योकि जिस प्रकार कलङ्कसे युक्त चन्द्रमा सुशोभित नही होता, उसी प्रकार दोषोसे युक्त व्रती इस भूतल पर सुशोभित नही होता ॥६७-६६॥ अतिथि सविभाग व्रतके अतिचार सचित्तभाजने बत्तः पिहितश्च सचित्तत । परैः प्रदीयमानश्च मात्सर्यमितरजनः ॥ ७० ॥ कालस्योल्लद्धनं वाने प्रमाववशतो नृणाम् । तुर्यशिक्षावतस्यैते दोषास्त्याज्याः सदा बुधैः ।। ७१ ॥ अर्थ-सचित्त- हरित पत्ते आदि बर्तन पर रक्खा हुआ आहार देना, सचित्त-हरित पत्र आदिसे ढका हुआ आहार देना, परव्यपदेश-दूसरेसे आहार दिलाना, मात्सर्य-अन्य दातारोसे ईर्ष्या करना और कालोल्लघन-प्रमादवश दानके योग्य समयका उल्लघन करना, ये पाच अतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षावतके अतिचार ज्ञानी जनोके द्वारा सदा छोड़ने योग्य है ।। ७०-७१ ॥ सल्लेखनाके अतिचार जीविताशसनं जातु मरणाशसनं क्वचित् । मित्रः सहानुरागश्चानुबन्धो भुक्तशर्मणः ॥ ७२ ॥ निदान चेति विजेया. सन्यासस्य व्यतिक्रमाः। एते सर्वे परित्याज्या. स्वर्गमोक्षाभिलाषिभिः।। ७३ ॥ अर्थ-कभी जीवित होनेकी आकाक्षा करना, कही कष्ट अधिक होने पर जत्दी मरनेको इच्छा करना, मित्रोके साथ अनुराग रखना, पूर्वभुक्त सुखका स्मरण करना और निदान-आगामो भोगोको इच्छा रखना, ये सन्यास-सल्लेखनाके अतिचार जानने योग्य है। स्वर्गमोक्षके इच्छुक पुरुषोको इन सब अतिचारोका परित्याग करना चाहिये ॥ ७२-७३ ॥ व्रत और शोलका विभाग अणुव्रतानि कथ्यन्ते तशब्देन सूरिमिः। शेषाणि सप्त कण्यन्ते शोलराम्देन सूरिभिः ।। ४।
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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