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________________ १५३ सम्यक्चारित्र-चिन्तामणिः सोमाको स्मृतिमें रखना, ये दिखतके अतिचार हैं। निर्दोष दिग्व्रतको इच्छा रखने वाले पुरुषोके द्वारा ये छोड़ने योग्य हैं ।। ५४-५५ ॥ देशव्रतके अतिचार आनयनं बहिः सोम्नो यस्य कस्यापि वस्तुनः । प्रेषणं प्रेष्यवर्गस्य शब्दस्य प्रेषणं बहिः ॥ ५६ ॥ प्रदर्शनं स्वरूपस्य क्षेपणं पुद्गलस्य इत्य मनीषिभिः प्रोक्ता दोषा देशव्रतस्य हि ॥ ५७ ॥ त्याज्या मनस्विभिनित्य निर्दोषव्रतवाञ्छिभिः । च । व्रतं सदोष नो भाति मलिन ह्यम्वर यथा ॥ ५८ ॥ अर्थ - मर्यादा के बाहरसे जिस किसो वस्तुको बुलाना, मर्यादाके बाहर सेवक समूहको भेजना, मर्यादाके बाहर अपना शब्द पहुँचानाफोन आदि करना, मर्यादाके बाहर कार्य करने वालोको अपना स्वरूप दिखाना और मर्यादाके बाहर पुद्गल - ककड़-पत्थर फेकना या पत्र आदि भेजना, ये विद्वज्जनोके द्वारा देशव्रतके अतिचार कहे गये है । निर्दोषव्रतको इच्छा रखने वाले विचारशील मनुष्योको इनका सदा त्याग करना चाहिये, क्योकि सदोष व्रत मलिन वस्त्र के समान सुशोभित नही होता ।। ५६-५८ ॥ अनर्थदण्डव्रतके अतिचार कन्दर्पश्च कौत्कुच्यं च मौखर्यं चासमीक्ष्य वं । अधिकस्य समारम्भ स्वप्रयोजनमन्तरा ॥ ५९ ॥ भोगोपभोगवस्तूनां सग्रहोऽनर्थको महान् । चित्तविक्षेपकारित्वादाकुलताविधायक ॥ ६० ॥ अतिचारा इमेत्याज्यास्तृतीयेऽनर्थदण्डके । लक्ष्यप्राप्तिर्यतो नास्ति सदोष व्रतधारणे ॥ ६१ ॥ अर्थ - कन्दर्प - रागमिश्रित भण्ड वचन बोलना, कौत्कुच्य - उसके साथ शरोरसे कुचेष्टा करना, मौखर्य-उसके साथ निरर्थक अधिक बोलना, स्वकोय प्रयोजनके न होने पर भी विचार बिना अधिक आरम्भ कराना और भोगोपभोगको वस्तुओका निरर्थक ऐसा बड़ा संग्रह करना जो चित्तविक्षेपका कारण होनेसे आकुलता उत्पन्न करने वाला हो । अनर्थदण्डव्रत नामक तृतीय गुणव्रतके ये अतिचार छोडने याग्य है क्योकि सदोष व्रत धारण करने पर लक्ष्यको प्राप्ति नही होतो ।। ५६-६१ ।।
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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