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________________ ११८ सम्पपारित-पितामणिः के हेतु कहे हैं। हेतुके रहते हुए हो कार्य होते हैं हेतुके बिना नहीं है आत्मन् ! यदि तू सब ओरसे दुःखोसे छुटकारा चाहता है तो समय और शक्तिके अनुसार शीघ्र ही तपकर । जिस प्रकार अग्निसे संतप्त स्वर्ण शोघ्र ही निर्मल हो जाता है उसी प्रकार तपसे संतप्त यह आत्मा निश्चित हो निर्मल हो जाती है। जीव निरन्तर चाहे भी, तो भो उनके अनादिकालसे बंधे हुए कर्म तपके बिना नष्ट नही होते हैं ।। ८४-६३ ॥ अब लोक भावनाका चिन्तन करते हैं पादौ प्रसार्य भूपृष्ठे बाहूनिक्षिप्य मध्यके। स्थितमर्त्यसमाकारो लोकोऽय विद्यते सदा ॥ ९४ ॥ न केनापि कृतो लोको म हत शक्य एव हि । अनादिनिधनो ोष वातत्रयसमावृतः ॥ ९५ ॥ अधोमध्योलभेदेन लोकोऽयं त्रिविषो मतः। स्वाभा बसन्त्यधो लोके मध्यलोके च मानवाः ॥ ९६ ॥ निलिम्पा ऊर्ध्वसम्भागे तिर्यवः सन्ति सर्वतः। अयं सुविस्तृतो लोको निचितो जीवराशिभिः ॥ ९७॥ एकोऽपि स प्रवेशो न विद्यते भवनत्रये। यत्राहं न समुत्पन्नो यत्र न च समृतः ॥ ९८॥ हा हा क्षेत्रपरावर्ते सर्वत्र अमितो भराम् । जन्ममृत्युमहादुःखममजं भूरिशोऽप्यहम् ॥ ९९ ॥ लोकरूप विचिन्त्यात्र ये विरक्ता भवन्स्यतः। त एव कर्मनिर्मक्ता लोकाये निवसन्ति हि ॥ १० ॥ सरिन्छलादिसौन्वयं राजतो चन्द्रिकाविभाम् । सूर्योदयस्य लालित्यं निरास्फालनं तथा ॥१०१॥ वृष्ट्वा रज्यन्ति भूभागे तव विहरन्ति च । निर्जला वृक्षहीनां च मरुभूमि विलोक्य ये॥१०२॥ द्विषान्ते मानवास्तेऽत्र रागद्वेषवशं गताः। उत्पयन्से म्रियन्ते च सव भवनत्रये ॥ १०३ ॥ अर्थ-पृथिवीपर दोनो पैर फैलाकर तथा दोनो हाथ कमरपर रखकर खड़े हुए पुरुषका जैसा आकार होता है वैसा ही आकार वाला यह लोक सदासे विद्यमान है। यह लोक न तो किसीके द्वारा किया गया है और न किसीके द्वारा नष्ट किया जा सकता है। अनादि निधन और तीन वातवलयोसे वेष्टित-घिरा हुआ है। अधोलोक, मध्य
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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