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________________ षष्ठ प्रकाश अर्थ-लोभरूपो वायुसे जिसको धर्यरूपी कील उखाड दो गयो है तथा जो दीनताको दुकान जैसा बन रहा है ऐसे मैने परिग्रहमे आसक्तहो कौन-कौन विचित्र चेष्टाएँ नहो को हैं ॥५॥ पापेन पापं वचनीयरूपं मया कृतं यज्जनता प्रभो! तत् । वाचा न वाच्यं मयका कथंचित् समस्तवेदी तु भवान् विवेद ।। ८६ ॥ अर्थ-हे जनजनके नाथ | मुझ पापोने जो निन्दनीय कार्य किया है उसे मै वचनोसे नहीं कह सकता। आप सर्वज्ञ हैं अतः सब जानते हैं ॥८६॥ त्वयाञ्जनाखा विहिता अपापाः संप्रापिताः सौख्यसुधासमूहम् । ममापि तत्पापचयः समस्तो ध्वस्तः सदा स्याद् भवतः प्रसादात् ॥ ८७॥ अर्थ-आपने अंजन चोर आदि पापियोको पापरहित कर सुखामृतके समूहको प्राप्त कराया है। अत आपके प्रसादसे मेरे भी समस्त पापोका समूह नष्ट हो ॥ ८७ ॥ ममास्ति दोषस्य कृतिः स्वभाव भवत्स्वभावस्तु तदोयनाशः। यद् यस्य कार्य स करोतु तत् तत् । न वार्यते कस्यचन स्वभावः ॥ ८८॥ अर्थ-मेरा पाप करना स्वभाव है और आपका उस पापको नष्ट करनेका स्वभाव है। अत जिसका जो कार्य है वह उसे करे क्योकि किसोका स्वभाव मिटाया नही जा सकता ॥८॥ विशेषार्थ-यहां मूलाचार और आचार्यवृत्तिके आधारपर 'कृतिकम' पर कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है। सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विशति तोर्थङ्कर स्तव पर्यन्त जो क्रिया है उसे 'कृतिकर्म' कहते हैं। प्रतिक्रमणमे चार और १. यहाँ उत्तमार्थ प्रतिक्रमणको दृष्टिमें रखकर जीवनके समस्त कार्योको प्रकट किया गया है । वैसे साधु अवस्थामें यह सब अपराध सम्भव नहीं हैं।
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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