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________________ पहा प्रकार मर्म-दुख है कि मैने क्रोधसे, मानसे, मदसे, मायाभावसे, लोभसे, कामसे, मोहसे और मात्सर्य समूहसे सदा दुःखदायक कर्म किया है ॥७६ ॥ प्रमावमाधम्मनसा मयते येकेन्द्रियाचा भविनो भ्रमन्तः । निपीडिता हन्त विरोषिताश्च संरोधिताः क्यापि निमीलिताश्च ।। ७७ ॥ अर्थ-प्रमादसे उन्मत्त हृदय होकर मैने भ्रमण करते हुए दो-इन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय आदि जीवोको विरोधित किया है, कही रोका है और निमोलित भी किया है अर्थात् उनके अंगो-उपाङ्गोको जोर देकर दबाया है॥ ७७॥ बाल्ये मया बोधसमुज्झितेन कुशानचेष्टानिरतेन नूनम् । अभक्ष्यसम्भक्षणाविकं हा पापं विचित्रं रचितं न कि किम् ॥७८॥ अर्थ-बाल्यावस्थामे ज्ञानरहित तथा कुज्ञानको चेष्टाओमे लोन रहनेवाले मैंने अभक्ष्य भक्षण आदि क्या-क्या विचित्र पाप नही किया है ॥ ७ ॥ तारुण्यमावे कमनीयकान्ता कण्ठामहाश्लेषसमुद्भवेन । स्तोकेन मोदेन विलोमितेन कृतानि पापानि बहूनि हन्त ॥ ७९ ॥ अर्थ-यौवन अवस्थामे सुन्दर स्त्रियोके कण्ठालिङ्गनसे उत्पन्न अल्पसुखमे लुभाये हुए मैंने बहुत पाप किये हैं ।। ७६ ॥ बाला युवानो विषवाश्च मार्या जरच्छरीरा सरलाः पुमान्सः । स्वार्थस्य सिद्धी निरतेन नित्यं प्रतारिता हन्त मया प्रमोदात् ॥ ८॥ अर्थ-स्वार्थसिद्धिमे लगे हुए मैने बालक, युवा, विधवा स्त्रियो, वृद्ध तथा सोधे पुरुषोको, खेद है कि बड़े हषसे सदा ठगा है ॥२०॥
SR No.010138
Book TitleSamyak Charitra Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1988
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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