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________________ ( ५ ) के सम्बन्ध मे भी उत्तम कोटि की पुस्तकें प्रकाशित होने लगी हैं । पिछले युगों मे ये कार्य प्राय करके अग्रेज, जर्मन, फासीसी आदि विदेशी तथा कतिपय जैनेतर भारतीय विद्वानो द्वारा ही सम्पादित हो रहा था, किंतु अब इस क्षेत्र में शायद ही कोई विदेशी विद्वान कार्य कर रहा हो, और इस दिशा मे प्रयत्नशील उच्चकोटि के भारतीय विद्वानो मे स्वयं जैन विद्वानों की संख्या भी कम नही है तथा उसमे दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती जाती है । कई एक यूनीवर्सिटियो मे भी, विशेषकर श्वेताम्बर समाज के उद्योग से कुछ विद्वान जैन रिसर्च का कार्य कर रहे हैं । मौलिक कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, प्रहसन, निबन्ध, साहित्यिक आलोचन आदि शुद्ध साहित्यिक विषयो के भी अनेक श्र ेष्ठ लेखक और कलाकार जैनो मे विद्यमान हैं । किन्तु जैसा कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कराँची श्रधिवेशन मे साहित्य परिषद के अध्यक्ष आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने अभिभाषण में कहा था कि 'अजैन विद्वानो को यह शिकायत अभी तक है कि जैनियो का साहित्य महत्त्वपूर्ण एव विपुल मात्रा मे होते हुए भी अभी तक उसके ऐसे अनुवादित सम्पादित संस्करण प्रकाश मे नही या पाये जो जैनेतर विद्वत्समाज द्वारा ग्राह्य हो ।' पर वास्तव मे बात बिलकुल ऐसी ही नही है । अनेक जैन ग्रन्थो के वैसे सस्करण प्रकट भी हो चुके है। हॉ जैनो ने उन्हें भजैन जनता और विद्वानो तक पहुचाने का उपयुक्त प्रयत्न नही किया और अजैन विद्वानो ने उन्हे स्वय प्राप्त करके अध्ययन करने मे उदासीनता भी दिखलाई है । कई वर्षों से निरन्तर प्रयत्न करते रहने पर भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन जैसी सार्व सस्था ने हिन्दी जैन साहित्य को अपने पाठ्यक्रम आदि में सम्मिलित करने मे उपेक्षा ही बरती है । अधिकाश विश्वविद्यालय प्रेरणा करने पर भी जैन रिसर्च को अपने यहाँ स्थान देने मे स्वत तैयार नही होते । राजकीय अथवा अखिल भारतीय साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि परिषदो और सस्थानी मे भी उसकी उपेक्षा हो की जाती है। ऐसी परिस्थिति में जैनों का ही प्रथम कर्त्तव्य है कि वे इन दिशाओ मे दृढ़ निश्चय के साथ अग्रसर हों,
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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