SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३२ ) नहीं करने देंगे । जवतक वे पूजोधत नवयुवक वेदी गृह मे रहे ये महाशय अपने स्थान से तनिक भी टस से मस न हुए। इसी प्रकार की छापा विरोधी । विविध घटनाएं स्थान स्थान मे हुई । तथापि अन्तत. २०वी शताब्दी के प्रथम दसक मे भान्दोलन सफल हो गया और विरोध शिथिल प्राय हो गया । इसमें भी सन्देह नही कि उक्त प्रान्दोलन मे श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने कुछ शीघ्र ही सफलता प्राप्त करली थी। श्वेताम्बर समाज में धार्मिक विषयो में उनके बहु संख्यक साधु वर्ग का ही प्रभुत्व रहता आया है, उनके निर्णयो और आदेशो को गृहस्थ जन 'बाबा वाक्य प्रमाणम् मानते हैं और इस प्रसग में उनकी यह प्रवृत्ति सुफलदायी ही हुई । इन साघुरो मे से कुछ दूरदर्शी महात्माओ को यह सुबुद्धि शीघ्र ही उत्पन्न हो गई कि जब छापा देश मे आ ही चुका है और देर सवेर इसे अपनाना ही होगा तो क्यो न धर्म ग्रन्थो की छपाई पर से शीघ्र ही प्रतिबन्ध हटा दिया जाय । फल यह हुआ कि दिगम्बर साहित्य की अपेक्षा श्वेताम्बर साहित्य बहुत पहिले छपने लगा और सन् १८७० से १८९० के बीच सैकडो श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रकाश में आ गये । सौभाग्य से यह समय ऐसा था जब दर्जनो उच्च कोटि के पाश्चात्य विद्वान् और प्राच्यविद भारतीय धर्मों, दर्शनो, सस्कृति, पुरातन साहित्य एव कला, पुरातत्त्व, जातियों के इतिहास प्रादि विविध विषयो के अध्ययन मे गहरी दिलचस्पी ले रहे थे। छापे के समर्थक उक्त श्वेताम्बर साधुओं और गृहस्थो ने इन विद्वानो के लिए अपना साहित्य सुलभ कर दिया और उनके द्वारा उसके उपयोग मे किसी प्रकार की रुकावट डालने के स्थान मे उल्टा उन्हे भरसक प्रोत्साहन, सहयोग और सुविधा प्रदान की। परिणामस्वरूप, जबकि १६ वी शताब्दी के मध्य तक बाह्य जगत के विषयो मे साधारण जीर्ण रुचि रखने वाले विद्वानो को जैन विषयक जो कुछ टूटी फूटी अल्प जानकारी जैनेतर भारतीय साहित्य से जैन समाज के किसी अग विशेष बाह्य सम्पर्क के कारण, अथवा शीघ्र ही ध्यान को आकर्षित कर लेने वाले किसी जैन पुरातत्त्व से हुई थी तथा उसी से सतोष कर इन विद्वानो
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy