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________________ ( २३ ) विनय, निन्दादि करेंगे। तब फिर उनके छपाने में दो जिसमें कि किसी भी जाति का कोई भी व्यक्ति कैसी भी अपवित्र अवस्था मे, चमड़े के जूते प्रादि पहने हुए ही उन्हें छूएगा, कहीं भी पटक या डाल देगा, छापे की स्याही में चर्बी आदि महा पवित्र पदार्थों के होने की संभावना और छापे के विकास के साथ साथ अविष्कृत मशीन से बने महा अशुद्ध कागज पर उनका छपना, छपने के पश्चात् भी उनकी पूर्ववत विनय बनाये रखना असंभव होना आदि सर्व प्रकार उन परम पूज्य शास्त्रो की भविनय और विडम्बना ही होगी जो कि एक महापाप होगा । यह सब उस समय की रूढिभक्त और प्राधुनिक प्रकाश की दृष्टि से अविकसित श्रद्धालू समाज जिसके लिए उक्त शास्त्रो का महत्व केवल धार्मिक ही था, कैसे सहन कर सकती थी । उसकी दृष्टि में तो यत्न पूर्वक वेष्ठनो मे लिपटे हुए और देव मन्दिरो के सरस्वती भडारो मे विराजमान वे सब ग्रन्थ बिला लिहान भाषा, भाव, विषय, कर्ता, प्राचीनता, प्रमाणीकता श्रादि के समान रूप से पूजनीय एव माननीय थे । उनका अन्य कोई महत्त्व या मूल्य उसकी दृष्टि मे था ही नही । छापे के इस प्रबल विरोध का बहुत कुछ आभास दिगम्बर जैन महासभा के मुख पत्र हिन्दी जैन गजट वर्ष २ अक १४ (८ मार्च सन् १८९७ ई० ) के पृष्ट १३ पर प्रकाशित निम्नलिखित समाचार से हो जाता है- "जैन शास्त्रों का छपना - ता० २४ जनवरी सन् १८६७ को जैनोन्नति कारक सभा प्रयाग का १७ वा समागम हुआ । यह समागम इस विषय पर विचार करने के लिये किया था कि 'जैन शास्त्र छपने चाहियें या नहीं ।' सभा के नियतानुसार स्थानिक जैनियो को इस विषय की सूचना दी गई थी। लाला बच्चूलाल ने जो इस विषय के व्याख्यान दाता नियत किये गये थे बड़े जोर शोर से एक घंटे तक जैन शास्त्रो के छपने के निषेध मे बहुत कुछ कहा । उनके पश्चात् बहुत से भाइयो ने उनकी बात को पुष्ट किया किन्तु उनके विपक्ष में किसी ने कुछ भी नही कहा । और उपस्थित महाक्षयो में से सबने एक मत होकर इस बात को स्वीकार किया कि हम छपे हुए ग्रंथ न लेंगे न पढेंगे न पढ़ावेंगे और इसके प्रचार को यथा शक्ति रोकेंगे ।
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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