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________________ - ( २१ ) शित करते कराते रहते हैं । कुछ उच्च कोटि को संस्थानों में तो सवैतनिक fare भी साहित्यिक शोध खोज एव निर्माण कार्य करने लगे हैं । कभी-कभी पुरस्कार अथवा पारिश्रमिक देकर ठेके पर भी ये कार्य कराये जाने लगे हैंयद्यपि ऐसे दोनो प्रकार के उदाहरण अभी अत्यल्प संख्यक ही हैं। कितने ही लेखक श्रेष्ठ विद्वान होने के साथ-साथ सुसमृद्ध भी है और वे निस्वार्थ भाव से उच्च कोटि के साहित्य सृजन मे पर्याप्त योगदान देते रहे है। ऐसे भी कितने ही उदाहरण हैं जबकि उक्त विद्वानों ने स्वयं लिखा, अच्छा लिखा और बहुत लिखा और फिर अपनी सर्व या अधिकांश कृतियों को स्वद्रव्य से स्वयं ही प्रकाशित करवाया अथवा अपने प्रभाव से एक वा अधिक धनी व्यक्तियों द्वारा प्रकाशित करवाया । त्यागी साधु महात्माओं के स्वप्रयत्न अथवा प्रभाव और रणा से भी बहुत सा साहित्य निर्मित और प्रकाशित होता रहता है । वास्तव में जैन समाज प्रधानतया दिगम्बर और श्वेताम्बर नामक दो सम्प्रदाथो में विभक्त है । लेखकों और प्रकाशको प्रादि की जिस दशा का वर्णन ऊपर किया गया है वह यद्यपि सामान्यत समस्त जैनसमाज पर लागू होती है तथापि ये दोष दिगम्बर समाज मे विशेष रूप से बढे चढे मिलते है । श्वेताम्बर जैनसमाज मे ग्रन्थ प्रकाशन व्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक सुव्यवस्थित एव सुसगठित है । उनके विद्वान और लेखको की दशा भी पारिश्रमिक, पुरस्कारादिक की दृष्टि से बहुत अच्छी है । स्व साहित्य का बाह्य समाज मे प्रचार करने की श्रेयस्कर प्रवृत्ति भी उनमे रही है । उनका साधु समाज साहित्यिक कार्य मे यथाशक्य योगदान देता है किन्तु उनके साथ जो कमी है वह यह है कि इन बातों की भोर से श्वेताम्बर गृहस्थ, दिगम्बर गृहस्थ की अपेक्षा कही अधिक उदासीन एव अयोग्य हैं । उनमे सुविज्ञ विद्वान् एव सुलेखक सख्या मे अत्यल्प है, अतएव साहित्यिक सस्थाओ, निर्मित साहित्य की उत्कृष्टता एव विपुलता तथा सामयिक पत्र पत्रिकाओं की दृष्टि से दिगम्बर समाज श्वेताम्बर समाज की अपेक्षा कुछ भागे ही है । अस्तु, यदि जैन समाज को समय की गति के साथ-साथ सजीव रूप में
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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