SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनियों की साहित्य सेवा और प्रकाशित जैन साहित्य किमी भी देश अथवा जाति के मास्कृतिक विकाम का मापदण्ड उसका माहित्य होता है । जातीय माहित्य की विपुलता, विविधता और उत्कृष्टता ही जातीय मस्कृति की उन्नतावस्या की द्योतक होती है। भारतीय मस्कृति की श्रमगधाग को प्रधान एव सर्व प्राचीन प्रतिनिधि जैन गम्कृति विशुद्ध भारतीय हाने क साथ ही साथ प्रायसर्व देशव्यापी भी रही है । जैनधर्म का सम्बन्ध कभी भी देश के किसी एक ही भाग विशेप अथवा जाति या वर्ग विशेप मे नही रहा वरन मदैव मे ही न्यूनाधिक अश मे यह धर्म मम्पूर्ण दशव्यापी रहता चला पाया है और प्राय प्रत्येक जाति तथा वर्ग के व्यक्ति टमले अनुयायी रहे है । एक प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ के कथनानुसार नो सम्पूर्ण भारतवा मे शायद एक भी ऐमा स्थान नही मिल मकता जिसे केन्द्र बना कर यदि बारह मील व्यास का एक काल्पनिक वृत्त खीचा जाय तो उसके भीतर एक या अधिक जैन मन्दिर,तीर्थ, बस्ती या पुराना अवशेष न मिले । वर्तमान मे जैन धर्मानुयायियो की मख्या यद्यपि अत्यल्प-लगभग २५-३० लाख रह गई है, तथापि आज भी वे देश में मर्वत्र फैले हा हे पोर विभिन्न प्रान्तो, जातियो, वर्गो और श्रेणियो के व्यक्ति उनमे मम्मिलित है। साथ ही वर्तमान जैन समाज प्रधानतया वर्तमान भारतीय समाज के समुन्नत, सुशिक्षित एव समृद्ध भाग का ही एक महत्त्वपूर्ण अश है। वह प्रगतिमान है और अपने लोकोपयोगी कार्यो के लिए प्रसिद्ध है । उसके प्रागनत तीर्थ, देवालय,
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy