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________________ १६ वृद्धि करने के बाद मार्चको डा० सा० मा० ने सूची को के प्रेस चले जाने जाँचने, सुधारने और कितने ही नये ग्रंथो की उसमे उसे फरी के अन्त मे वापिस कर दिया और वह दूसरी के पास प्रयाग भी पहुच गई, जिसकी पहुच देते हुए डा० बड़े ही परिश्रमसे तैयार हुई बतलाया और अपनी सूची की सूचना करते हुए यह परामर्श दिया कि यदि विषयो के अनुसार वर्गीकृत होकर वह अनेकान्त (मासिक) मे प्रकाशित हो जावे तो बड़ा अच्छा हो । साथ ही उसी पत्र तथा २० मार्च के पत्र में यह श्राश्वासन भी दिया कि वे यथा संभव उस सूची का उपयोग करके उसे बापिस लौटा देंगे । १६ अप्रेल १९४५ से पहले तक यह सूची वापिस नही लौटी, २२ जुलाई तथा २ नवम्बर के पत्र मे सूची के उपयोग सम्बध मे इतनी ही सूचना की गई - 'सूची जरा देर से प्राप्त हुई थी इस कारण उसमे पूरा लाभ नही उठा सका । श्रापकी सूची के प्राचीन प्रथो सनतान्त अपरिचित होने के कारण कुछ को चुनना और शेष को छोड़ना ठीक नही लगा । श्राधुनिक ग्रथो मे से जो महत्व पूर्ण हैं उनमे से अधिकांश मेरी सूची में पहले से थे। जैनधर्मका परिचय कराने वाले प्राघुनिक ग्रथ एकाध आपकी सूची से भी मिलगए हैं ।' डा० माताप्रसादजी की उक्त सूची 'हिन्दी पुस्तक साहित्य' नाम से अप्रेल १६४५ मे प्रकाशित हो गई, उसे देख कर हमारे सयोजक जी को प्रकाशित न ग्रथो की एक बड़ी सूची तय्यार करने की विशेष प्रेरणा मिली । फलतः उन्होने हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, और अपभ्रंश भाषा के प्रथो की मी एक सूची सकलित की भोर उसे धारा के जैन सिद्धान्तभास्कर (त्रैमासिक) में खपाना चाहा, परन्तु वहाँ क्रमश प्रकाशित करने की बात उठी, जो उचित नही जाँची । तदन तर भारतीय ज्ञान पीठ के प्रधान विद्वान न्यायाचार्य प० महेन्द्र कुमार जी से इसके विषय मे पत्र व्यवहार हुआ और वह मार्च १९४६ मे उनके पास बनारस भेज दी गई । न्यायाचार्य जीने उसे देखकर ८ अप्रेल के पत्र में लिखा कि "इस (सूची) में बहुत परिश्रम करनेकी आकश्यकता है, तब कही यह छपने योग्य होगी । श्रभी हमारे यहा छपाई का सिलसिला भी ठीक नहीं हो सका है"। इस बीच मे संयोजकजीने बा० ज्योतिप्रसादजी
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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