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________________ 'प्राक्कथन श्री पन्नालाल जैन की इस छोटी किन्तु उपयोगी पुस्तक का में स्वागत करता हूँ । इसमे जैन वाङमय के क्षेत्र मे अब तक के साहित्यिक कार्य का अच्छा परिचय दिया गया है। उस वर्णन मे पर्याप्त जानकारी का संग्रह है। श्री पन्नालालजी ने अध्यवसाय पूर्वक अपने आप को उस विभाग से अद्याक षिक अवगत रक्खा है । जहाँ तक भारतीय संस्कृति और वाङ्मय का सम्बन्ध है हम उसके अखड स्वरूप की आराधना करते हैं । ब्राह्मण और श्रमण दोनों धारापो से उसका स्वरूप सम्पादित हुआ है। श्रमण संस्कृति के प्रतर्गत जैव संस्कृति साहित्य, धर्म, दर्शन, कला इन चार क्षेत्रो में प्रति समृद्ध सामग्री प्रस्तुत करती है। नई दृष्टि से उसका अध्ययन और प्रकाशन आवश्यक है। यह देखकर प्रसन्नता होती है कि जैन विद्वान निष्ठा के साथ इस कार्य में लगे हैं। उनके प्रयत्न उत्तरोत्तर फलवान हो रहे हैं। प्राकृत और अपम्र श भाषाओं की सामग्री मे तो अब प्राय देश के सभी विद्वानो की अभिरुचि बढ रही है। वह समय परिपक्क है जब इन ग्रथो को नए ढंग से सशोधित रूप में सम्पादित करके प्रकाशित किया जाय । जो कार्य अब तक हुअा है उसका एक लेखा-जोखा जान लेने पर नवीन कार्य की प्रेरणा प्राप्त हुआ करती है। इस दृष्टि से यह वृत्तान्त उपयोगी है । इसके अन्त मे जैन भडारों और पुस्तकालयों की एक सूची जोड दी जाय तो और अच्छा रहेगा । हमे यह देखकर आनन्द होता है कि सरस्वती भंडारो के स्वामी और प्रबन्धक अब प्राय उदार दृष्टिकोण अपनाने लगे हैं । सम्पादन और प्रकाशन के लोकहितकारी कार्यों मे उन से मिलने वाले सहयोग की मात्रा बढ रही है। इस महती शताब्दी के उत्तरार्ष मे जैन साहित्य के समुचित प्रकाशन की धारा और अधिक वेगवती बद मकेगी, ऐसी आशा होती है। अनेक केन्द्रों से वितत कार्य के सूत्रो का सम्मिलित पट मोर सुन्दर बनेगा, ऐसे शुभ लक्षण प्रकट हो रहे हैं। इस समय जो विद्वान
SR No.010137
Book TitlePrakashit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain, Jyoti Prasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1958
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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