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________________ पाँचवाँ सर्ग है श्रेय आपको ही उसका, जो मिला महा सौभाग्य मुझे | आराध्य ! आपके श्राराधन-से मिले जगत् श्राराध्य मुझे || आपकी श्रतएव के लिये सदा अनुकम्पा -- आभारी हूँ । प्रभो मेरे, श्रापकी नारी हूँ | यह प्राची सूर्य कहाँ से दे, प्रभात नहीं । होवे यदि स्वर्ण यदि रहे न सरसी में जल तो, दे सकती वह जल जात नहीं ॥ नर हो आप मैं मात्र बस, यही समझ नत करने दें, मुकको अपना यह भाल सदा । औ' दया दृष्टिनिज श्राप रखें, मुझ पर हर क्षण भूपाल सदा || पुष्पाञ्जलि मुझे चढ़ाने दें अपने ममतामय भावों की । इति करें कृपाल ! कदापि नहीं, अपनी कमनीय कृपाओं की ॥ १५७
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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