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________________ तीसरा सर्ग 15 ५ उनको जब जो भी इष्ट हुई, तत्काल उन्हें वह वस्तु मिली । आ गयी वहीं सामग्री स्वच, पर उनकी जिह्वा भी न हिली ॥ वे स्वप्न फलों को सुनने कीमन में थीं श्राज उमंग लिये । अतएव शीघ्रता से पूरे, दिन चर्या के वे श्रङ्ग क्रिये ॥ पश्चात् स्नान कर नव भूषा, धारण की श्राज निराली थी । चेरी ने कौशल से गूँथी, उनकी केशावलि काली थी ।! वे, इसके उपरान्त विभूषण पहिने रुचि के अनुरूप स्वयं । प्रायः ही जिन्हें पहनने का श्राग्रह करते थे भूप स्वयं ॥ श्राभरण पहिन कर मांग भरी, खींची यो रुचि से सब दर्पण में निज मुख देखा फिर H सिन्दूरी रेखा फिर । शृङ्गार किये, .१२१
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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