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________________ ६२० परम ज्योति महावीर चक्री-छः खण्ड की पृथ्वी के स्वामी, भरत व ऐरावत में प्रत्येक उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी में जब तीर्थकर २४ होते हैं तब ये १२ होते हैं। केवलज्ञानी-सर्वज्ञ भगवान परमात्मा अर्हन्त व सिद्ध । त्रिभुवन-स्वर्ग, पृथ्वो और पाताल इन तीन भुवनों का समाहार। जात कर्म-पुत्र जन्म के अवसर पर किया जाने वाला एक, संस्कार, सोलह संस्कारों में से चौथा । मति ज्ञान-मतिज्ञानावरण कर्म व वीर्यान्तराय दयोपशम से पाँच इन्द्रिय या मन द्वारा सीधा पदार्थ को जानना । इसके ३३६ मेद हैं। श्रुत ज्ञान-मति ज्ञान से निश्चय किये हुये पदार्थ के श्रालम्बन से उस ही पदार्थ को सम्बन्ध लिये हुये अन्य किसी पदार्थ का जानना । यह मतिज्ञान पूर्वक होता है । इसके दो भेद हैं--एक अक्षरात्मक दूसरा अनक्षरात्मक। अवधि ज्ञान-जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिये हुये रूपी पदार्थ को स्पष्ट व प्रत्यक्ष जाने । इस ज्ञान के लिये इन्द्रिय तथा मन की सहायता नहीं लेनी पड़ती 1 देव नारकियों को अवधि ज्ञान जन्म से ही होता है। प्रारम्भ-मन, वचन, काय से अनेक प्रकार के व्यापार आदि कार्य करना।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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