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________________ उन्नीसवाँ सर्ग प्रभुवर ने विप्र 'अचलभ्राता'-- की ओर तुरन्त निहारा अब । बोले-"क्या पुण्य तथा पापोंमें शंकित हृदय तुम्हारा अब ?" यह सुनकर बोले 'अचल'-"इन्हींमें मम मन शंकित होता है। ये पुण्य पाप हैं या कि नहीं ? यह तथ्य न निश्चित होता है । अतएव कहें, क्या वास्तव मेंही पुण्य पाप ये होते हैं ? क्या ये यथार्थ हैं त्यों ? यथार्थज्यों शीत ताप ये होते हैं।" इतना कह जब चुप हुये 'अचल' बोले वे श्री अर्हन्त अहा । "पण्डित ! इनका न अभाव कभी भी यहाँ श्राज पर्यन्त रहा ।। तुम अभी 'पुरुष एवेदं' से, जो कुछ समझे वह अर्थ नहीं। ये वाक्य दूसरे तत्वों केनिरसन के हेतु समर्थ नहीं ।।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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