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________________ ४६३ उन्नीसवा सर्ग यह सूचित करता, नश्वर है, माँ पिता पुत्र परिवार सभी । आयुष्य अन्त में लेते हैं, अन्यत्र नया अवतार सभी ।। अतएव मुमुक्ष, विनश्वर सुखमें नहीं कभी विश्वास करें । एवं अविनाशी आत्मिक सुख पाने का सतत प्रयास करें ॥" यों 'आर्य व्यक्त' की शंकाएँ कर दूर मौन श्री 'वीर' हुये । औ, आर्य व्यक्त' निजशिष्यों सँग, मुनि बनने हेतु अधीर हुये ।। वे चौथे हुये गणधर तथा धर लिया दिगम्बर वेष अहो । पश्चात् 'सुधर्म' द्विजोत्तम से बोले श्री 'वीर' जिनेश अहो ॥ "जिसप्राणी का जिस जीव योनिसे होता तन अवसान, वही-- निज योनि उसे फिर मिलती है, क्या तुमको है श्रद्धान यही ?
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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