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________________ ४६२ परम ज्योति महावीर वे जिसे किसी को सूचित कर, भी नहीं पछते थे उत्तर । कारण, विद्वान् समझते थे, वे अपने को सबसे बढ़कर ॥ औ' नहीं किसी को साधारण लगते थे उनके तर्क कदा । यशों में सर्व प्रथम मिलता था उनको ही मधुपर्क सदा ।। जब पढ़ते, लगता सरस्वती स्वर में स्वयमेव उतरती है। श्री' स्वयं वृहस्पति की प्रशाही उन्हें अलंकृत करती है । सब विप्र योग्यता उन जैसी, पाने के लिये तरसते थे । बन शिष्य सैकड़ों ही उनके, अपनी प्रतिभा को कसते थे ।। था कारण यही, किसी को जोनिज शङ्का वे न बताते थे । थी ख्याति रोकती, अतः प्रश्न, करने में भी सकुचाते थे ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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