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________________ परम ज्योति महावीर उस अपहृत अपनी भगिनी से, मिलने का श्राज नियोग हुवा । रह गयी न जिसकी आशा थी, उससे सहसा संयोग हुवा । अतएव 'चन्दना' को ले जा-- कर किया विविध आयोजन था । निज राज भवन में अपने सँग सस्नेह कराया भोजन था । औ' उसे पहिनने हेतु नये, निज तुल्य वसन श्राभरण दिये । तदनन्तर दोनो ने अतीतके व्यक्त कई संस्मरण किये ॥ सब कहा 'चन्दना' ने कैसे विद्याधर ने अपहरण किया ? किस भाँति बचाकर 'वृषभसेन'-- ने अपने गृह में शरण दिया ।। यह भी बतलाया मैं कैसे करती सतीत्व का त्राण रही। हर समय शील की रक्षा में देने को तत्पर प्राण रही ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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