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________________ ४०२ कुछ ठहर वहाँ भी 'कलंबुका' - को फिर वे त्रिशला - लाल गये । पुर के निवासियों पर अपनेतप का प्रभाव सा डाल गये || वह स्वयं प्रभावित होता, जो उनका दर्शन कर लेता था । कारण उस समय न कोई भी, उन सा उपसर्ग-विजेता था || कुछ भेंट चाहते देना नर, पर वे कणमात्र न लेते थे । निर्ग्रन्थ पूर्ण रह भवसागरमें जीवन-नौका खेते थे ॥ परम ज्योति महावीर कर यथाशीघ्र निर्जरा उन्हें, कैवल्य प्राप्त कर लेना था । हो प्राप्त घातिया कर्मों कोभी तो समाप्त कर देना था || बस, इसी हेतु वे समता से सह लेते सारे क्लेश सदा । श्रौ' अपने चरणों से नापा - करते प्रत्येक प्रदेश सदा ||
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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