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________________ ३८० परम ज्योति महावीर इतने पर भी उस नागराज, का साहस आज न हारा था । काटा तत्काल अँगूठे में, या विष से चरण पखारा था ।। पर नहीं वीर ने नयन खोल उस अहि की ओर निहारा था । उनकी इस दृढ़ता से विषधर, पर चढ़ा क्रोध का पारा था ।। फण पुनः चलाया कई बार, जो सहे उन्होंने शान्ति सहित । यों पूर्ण शक्ति व्यय कर भी अहि, कर सका न उनका ग्राज अहित ।। पा नहीं सका जय महानाग उन 'महावीर' पर हिंसा से । पर 'महावीर' ने महानागपर जय की प्रास अहिंसा से ।। यह अपनी प्रथम पराजय उस, विषधर को बनी पहेली अब । सोचा, यह कौन पुरुष ? जिसने ये मेरी चोटें झेली सब ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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