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________________ ३७८ परम ज्योति महाबीर चाहे विपत्ति जो भाये, सब--- सह लेते थे वे समता से । निज निश्चय नहीं बदलते थे, डर कर पथ की दुर्गमता से । गोपों ने उन्हें सचेत किया, “यह मार्ग निरापद सरल नहीं। रह रहा दृष्टि विप सर्प यहाँ, सकता कोई भी निकल नहीं ।। कारण, उसकी विष-ज्वाला को, कोई न कभी सह पाया है । जो गया हठात् इधर होकर, जीवित न निकल वह पाया है ।। जो भी जन वहाँ पहुँचता है, डस लेता उसको साँप वहीं । इससे इस पथ से होकर अब, प्रस्थान कीजिये आप नहीं ।।" यह सत्य सूचना सुनकर भी प्रभु ने त्यागा उत्साह नहों । औ' विषम दृष्टि विष विषधर से डर कर बदली निज राह नहीं ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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