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________________ बारहवाँ सर्ग यह अवनि किसी की नहीं, किसीका भी तो यह आकाश रहा । शासक कहलाने वालों पर, भी शासन करता नाश रहा ।। मैं भी नारायण, चक्री का, पद पाया, सब अनुकूल हुवा । पर पलक सदा को मुँदते ही, सव कुछ पल भर में धूल हुवा || किसका रहता यह राज्य विभव, राजा भी रहता कौन यहाँ ? चलता रहता है काल-चक्र , सब देखा करते मौन यहाँ ।। अनुमति दें, तप-तरणी से, में पार करूँ भवसागर यह ।" हो मौन विशेष प्रशान्त हुये, इतना वे शान-दिवाकर कह ।। सुन राजा राज्य-विषय पर फिर. कह सके अन्य उद्गार नहीं । पर उनके मन की ममता ने, मानी अब भी थी हार नहीं ।।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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