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________________ बारहवाँ सर्ग बोले - "जो कुछ तुम कहते हो, वह निराधार निस्सार नहीं । पर तव वियोग को सहना तो, मेरे मन को स्वीकार नहीं || इससे मेरा यह कहना है, तुम राज्य अभी सोत्साह करो । रह राजभवन में ही अपने, व्रत नियमों का निर्वाह करो || कर रहे शीघ्रता क्यों इतनी ? जब निश्चित मिलना सिद्धि तुम्हें । स्वयमेव प्राप्त हो जाना है, इस भव में मुक्ति-समृद्धि तुम्हें ॥। श्रतएव नहीं तुम कर्मों के, क्षय करने का कुछ सोच करो । यह राज्य सम्हालो, मन में मत, किंचित् भी तो सङ्कोच करो ॥” सुन प्रभु ने कहा- " उठायें फिर, वह ही प्राचीन प्रसङ्ग नहीं । इस राज्य - प्रलोभन का मेरेमन पर चढ़ सकता रङ्ग नहीं || ३३१
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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