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________________ बारहवाँ सर्ग प्रतिदिन मल मल कर धोते हैं, बाहर के मल को भोले जन । पर यदि भीतर का मल बाहरहो तो न नयन भी खोले जन || *मिथ्यात्व-मद्य को पीने सेही हुवा महा उन्माद इसे । कर रहे निमग्न भवोदधि में, व्रत हानि, कषाय प्रमाद इसे ॥ यह जीव बृथा ही औरो को, निज महा शत्रु है मान रहा । वास्तविक शत्रु तो अाश्रव है, पर इसे न यह पहिचान रहा ॥ यह श्रास्रव रोक मुझे करना निज कर्मों को उन्मूल स्वयं । भव सागर-पार पहुँच - पाना है मुक्ति नाम का कूल स्वयं ॥ 'अतएव बनूँगा निर्मोही, अविलम्ब त्याग कर मोह सभी । अनुराग किसी से नहीं, किसीसे नहीं करूँगा द्रोह कभी ॥ ७. श्रासवानुप्रेक्षा । ८. संवरानुप्रेक्षा ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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