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________________ बारहवाँ सर्ग ३१७ एकाकी 'वीर' विराजे थे, नासा पर दृष्टि झुकाये थे। इस समय उन्हें संस्मरण स्वतः, निज पूर्व जन्म हो आये थे। या भील-जन्म से अब तक का, हर जन्म उन्हें तत्काल दिखा । था मोहक देव स्वरूप दिखा, नारको रूप विकराल दिखा । 'नन्दन वन' का भी दृश्य दिखा, 'वैतरिणी' की भी कीच दिखी। पर्याय उन्हें प्रत्येक उच्चसे उच्च नीच से नीच दिखी ।। देखा, तज स्वर्ग निगोद गया, . औ' कई बार ही कीट हुवा । कर साठ लाख यो जन्म मरण, 'नारायण' धार किरीट हुवा ।। हो सिंह निरन्तर हत्या की, 'चक्री' हो जय षट् खण्ड किया । "क्षेमङ्कर' मुनि से प्राप्त पुनः मैने यह रत्न कण्ड किया ।।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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