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________________ ग्यारहवाँ स श्रतएव उन्होंने पुनः नहीं, छेड़ा यह राज्य प्रसङ्ग कभी । कारण, न 'वीर' पर चढ़ सकताथा कोई भी तो रङ्ग कभी ॥ यों गृह में रहते हुये बीते उनतीस बसन्त अभी । माँ और पिता के कारण पर वे बन न सके थे सन्त अभी ॥ वे एक दिवस थे माथे पर दायाँ हाथ इतने में मूक रुदन सुनकर, उनका सा उनका साथ स्वयं ॥ बैठे रख स्वयं । उन्हें वे क्षण भर में ही समझ गये, पशु बलि दी जाती हाय ! कहीं । कुछ मूकों दीन निरीहों पर होता अनुचित अन्याय कहीं ॥ देवी की भेंट चढ़ाने को होता है अज - संहार कहीं । जगदम्वा को सन्तति के शिर जा रहे दिये उपहार कहीं ॥ ३११
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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