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________________ परम ज्योति महावीर पा राज्य न कोई तृप्त हुवा, इनसे पनपा है लोभ सदा । श्री मात्र राज्य सत्ताओं से, ॥ ही बढ़ा प्रजा में क्षोम सदा ॥ प्रोत्साहन भीषण युद्धों को, भी मिलता इनके द्वारा है। जिनमें लाखों की हत्या से' बहती शोणित की धारा है ॥ छल, कपट, प्रवञ्चन बढ़ते हैं, आश्रय विश्वास न पाता है। सुख भोग विलास पनपते हैं, तप संयम पास न आता है ॥ इनकी छाया में हो पाता मानवता का निर्वाह नहीं । पर सुख से क्रीड़ा रत रहतीहै दानवता सोत्साह यहीं । यह ही न सगे भ्राताओं में-- बढ़ता रहता विद्वष यहाँ । स्वयमेव पिता की हत्या कर बनते हैं पुत्र नरेश यहाँ ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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