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________________ ३०६ जब अश्वमेघ के समय अश्व, करते हैं करुण विलाप कहीं । तो मुझको लगता, इसी समय ---- जा रोकूँ मैं यह पाप वहीं ॥ मानवता थर थर काँप मानव के क्रिया कलापों श्रतएव श्रहिंसा का प्रचार- करने की है श्रभिलाष मुझे । अविलम्ब रोकना यज्ञों में होने वाला पशु-नाश मुझे ! राज्यासन पाने से मेरा चित्तं परम ज्योति महावीर सुकुमार हिंसा झुलस हिंसाल के सन्तापों की लिप्सा- मलीन नहीं । इससे कदापि सिंहासन पर मैं होऊँगा श्रासोन नहीं || रही, से । रही, से ॥ है यही हेतु, जो भाते हैंमुमको ये भोग विलास नहीं । औ' राजमुकुट को लेने की को किंचित् भी प्यास नहीं ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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