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________________ २९७ दसवाँ सर्ग इससे परिणयन कराना अब, मेरे पथ के अनुकूल नहीं । मैं अतः किसी भी कन्या केदृग में डालूँगा धूल नहीं ॥ निज पथ में मान रहा, नागिनके सम नारी के केशों को । इससे हे माँ ! मैं पूर्ण नहीं, कर पाता तव आदेशों को ॥ मेरा जो कुछ भी निश्चय था, वह मैंने निस्सङ्कोच कहा । करना अब पुनर्विचार नहीं, सब कुछ सम्यक ही सोच कहा ॥ लो मान, किसी भी कान्ता काबनना है मुझको कन्त नहीं । करना निवास इस राजभवनमें भी जीवन पर्यन्त नहीं ॥ इससे अब हार मँगाएँ मत, गहने भी आप गढ़ायें मत । औ' मुझे विवाह कराने का, भी पाठ कदापि पढ़ायें मत ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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