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________________ दसवाँ सर्म पर वे न जानती थी, हमसे - है रुष्ट हमारा भाग्य हुवा । केवल न हमीं से, हर नारीसे 'सन्मति' को वैराग्य हुवा ॥ वे मुक्ति मोहनी पर मोहित, इसका न उन्हें था भान हुवा । अनभिज्ञ 'वीर' के मन से. रह उनका मन था अनजान हुवा । कुछ 'महावीर' की सुषमा सुन--- ही उन पर अधिक लुभायीं थीं। पर उनकी दशा बिलक्षण थी, जो उन्हें निरख भर पायीं थीं ॥ पर 'वीर' कभी सुन्दरियों की, सुन्दरता पर न लुभाये थे। उनने नारी के चित्रों की-- भी ओर न नेत्र उठाये थे । नारी में आकर्षण होता; इसका न उन्हें आभास हुवा । इस अनासक्ति को देख स्वयं, श्राश्चर्य नमग्न विलास हुवा ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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