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________________ २५४ था ज्ञान न उसको 'महावीर'की महावीरता का, बल का । सोचा, 'मेरा क्या कर सकता, यह राजकुमार ग्रभो कल का ?" इनमें देवों से अधिक शक्ति, इनका न उसे था बोध अभी । वह समझा था साधारण नर, इससे विशेष था क्रोध अभी ॥ यह सोच वेग अतएव हुवा अब पहले से - बबूला था। भी बढ़कर श्राग 'मैं अभी पछाड़े देता हूँ', यह सोच हृदय में फूला था ॥ पर 'महावीर' उस क्षण पुरुषार्थ वे अनुकरणीय से झपटा वह, निर्भीक रहे । पराक्रम के परम ज्योति महावीर सोचा, 'यम के ही सम्मुख लेआया इसका दुर्भाग्य इसे | अब मृत्यु-गोद में सोने का, मिल जायेगा सौभाग्य इसे ॥ , प्रतीक रहे ||
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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