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________________ नयाँ सर्ग मम भार स्वतन पर होने से, इसका मन अतिशय क्षुब्ध हुवा । लगता है ऐसा जैसे वह हो मम साहस पर लुब्ध हुवा || अतएव लौट अव श्राश्रो सब देगा न तुम्हें यह त्रास यहाँ । यह सुन कर सहचर लौट तुरत, श्री गये वीर के पास वहाँ ॥ वीर नहीं, ये 'वीर' नाम के यह 'संगम' सुर को ज्ञात हुवा | उनका गुरु भार सहन करनेमें अक्षम उसका गात हुवा || यह नहीं सहन कर यह देख 'वीर' वे औ' बोले-'भागो शीघ्र उधर, पाता अब, उतर पड़े । मन भी तुम्हारा जिधर पड़े || " - रूप यह सुनते ही निज देव -- में परिवर्तित वह उरग हुवा | कुछ समय पूर्व का काल नाग, सुर रूप सुदर्शन सुभग हुवा || १६ - ૨૪૨
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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