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________________ सातवाँ सर्ग वहाँ, सबने श्रति श्रद्धा सहित जिनवर के यश के छन्द सुने । नये, हो मुग्ध विलोके नृत्य ' विविध वाद्य सानंद सुने || यो इधर अवनि नभ गूँज उठे, नव जात जिनेश्वर की जय से । औ' उधर सौरिगृह गूँज उठा, मधु सोहर गीतों की लय से ॥ स्वयं, गा मधुर झूमरी राग कुछ नर्तकियाँ थीं झूम रहीं । थीं जिनके सङ्ग विमोहित हरदर्शक की आँखें घूम रहीं ॥ .. कुछ ठुमक ठुमक कर ठुमरी गा, सोल्लास सलास ठुमकतीं थीं । फिर जातीं फिर फिर फिरकी सी, चपला सी चमक चमकती थीं ॥ नर्तन को, डोरी थी । नट और नटी के श्राबद्ध कहीं पर जिस पर नटिनी निज नृत्य दिखा, गा रही मधुरतम लोरी थी ॥ २०५
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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