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________________ - १८१ छठा सर्ग की प्रकट किसी ने जिज्ञासा 'क्या उनको आता क्रोध नहीं ?' झट उत्तर मिला--"किसी से वेरखते ही वैर विरोध नहीं ॥' फिर बोल उठी कोई-~-'उनकोक्या मोह न सकती रम्भा भी ?' उत्तर दे दिया कि 'मानेंगे-- वे उसे शुष्क तरु खम्भा सी ।' फिर किया किसी ने प्रश्न---'न क्या वे होते चिन्तालीन कभी ?' बोलीं.-'होते कृतकृत्य, अतः जगती इच्छा न नवीन कभी ।' फिर कहा किसी ने-'क्या हमको दे सकते वे सुख क्लेश नहीं ? बतलाया कि किसी भी प्राणी को देते सुख दुःख जिनेश नहीं।' फिर तर्क उपस्थित हुवा कि 'तब क्यों उन्हें पूजता लोक सभी ! उत्तर था-'उनका गुण चिन्तन देता चिन्ताएँ रोक सभी।'
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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