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________________ 1969 ई को आगरा में द्वितीय प्रतिमा एवं मिती माह सुदी 11 सं. 1969 ई. को फिरोजाबाद में क्षुल्लिका दीक्षा पूज्य श्री आचार्य विमलसागर जी महाराज से ली। आप संघ की विदुषी, तपस्विनी एवं शांत परिणाम की क्षुल्लिका हैं। स्व. ब्रह्मचारी पंडित गौरीलालजी शास्त्री (व्रती विद्वान) ऐसे व्यक्तित्व जो आचरण एवं ज्ञान की महिमा से मंडित होते हैं जीवन के सच्चे पोषक होते हैं। सप्तम प्रतिमाधारी, जातिभूषण, धर्म दिवाकर, विद्वतवर्य, पंडित गौरीलाल जी जैन सिद्धान्तशास्त्री ऐसी ही महान् आत्मा थे, जिन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों से जूझकर छद्मस्थ वेष में रहकर ब्राह्मण विद्वानों से संस्कृत का अध्ययन किया। क्योंकि उस समय ब्राह्मण जैन विद्वान को संस्कृत पढ़ाने से घृणा करते थे। आपने अपने जन्म से ग्राम बेरनी (एटा) को धन्य किया। संस्कृत, व्याकरण के आप उच्च कोटि के विद्वान थे और सिद्धान्तगत प्रत्येक शब्द का अर्थ निरुक्तिपूर्वक करते थे। शंका-समाधान की अपनी निजी शैली थी। स्व. मुनिराज श्री चन्द्रसागर जी महाराज को उद्भट संस्कृत विद्वान बनाने का श्रेय आपको ही था। आपने रत्नकरंड श्रावकाचार, षटकर्मोपदेश, रत्नमाला आदि अनेक ग्रन्थों की हिन्दी टीका की। आप प्रतिष्ठाचार्य भी थे। आपने मथुरा में दि. जैन महाविद्यालय की स्थापना कर उसे जैन दीक्षा का प्रमुख केन्द्र बनाया तथा स्वयं जैन बद्री, मूडबिद्री में रहकर जयधवलादिक ग्रंथों का स्वाध्याय किया। आपने पद्मावती परिषद् की स्थापना करके पद्मावती पुरवाल पत्र निकाला और उसके सम्पादक रहे। आपने आगे पथावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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