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________________ चातुर्मास कर धर्मवृद्धि की। आपको छहढाला, बारहभावना, वैराग्य पाठ का विशेष ज्ञान था। आपने नमक, घी, तेल आदि का त्याग कर दिया था । शरीर की निर्बलता के कारण आप श्री सोनागिरसिद्ध क्षेत्र पर विराजमान रहने लगे थे और अंत में 1987 में यहीं पर समाधि हुई । आचार्य श्री निर्मलसागरजी महाराज गिरनार के महान संत तीर्थरक्षा शिरोमणि, श्रमणरत्न गिरनार गौरव श्री 108 आचार्य निर्मलसागर जी का जन्म मार्गशीर्ष कृष्ण दौज वि.सं. 2003 सन् 1946 को ग्राम पहाड़ीपुर जिला एटा ( अब फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश) में पद्मावती पुरवाल परिवार में हुआ। आपका गृहस्थावस्था का नाम श्री रमेशचन्द्र था। आपके पिताश्री सेठ बिहारीलाल एवं माता श्री गोमावती थे। दोनों ही धर्मात्मा एवं श्रद्धालु थे । देव- शास्त्र - गुरु के प्रति उनकी अनन्य भक्ति थी तथा अधिक समय धार्मिक कार्यों में ही व्यतीत करते थे। उन्होंने पांच पुत्र एवं तीन कन्याओं को जन्म दिया। उनमें सबसे लघु पूज्य आचार्य श्री ही हैं । सबसे छोटे होने के कारण माता पिता का आप पर विशेष स्नेह रहा । लेकिन यह प्यार अधिक समय तक न रह सका। आपकी छोटी उम्र में आपके माता-पिता देवलोक सिधार गए। आपका लालन-पालन आपके बड़े भाई श्री गौरीशंकर जी द्वारा ही हुआ। आपकी वैराग्य भावना बचपन बलवती हुई । आपके मन में घर के प्रति उदासीनता रही। आपके हृदय में आहार दान देने व निर्ग्रन्थ मुनि बनने की भावना ने घर कर लिया था । आप जब छहढाला आदि पढ़ते थे तो इस संसार के चक्र परिवर्तन को देखकर आपका हृदय कांप उठता था तथा वह धर्मचक्षुओं द्वारा प्रभावित होने लगता था । आप सोचते थे कि इन दुःखों से बचकर अपने को कल्याण मार्ग की ओर लगाकर सच्चे सुख को प्राप्त करना चाहिए । पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 58
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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