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________________ प्रकार आपका ज्ञान चारित्र के साथ जुड़ा। दिगम्बर साधु अवस्था धारण कर कुछ वर्ष तक आप दक्षिण प्रान्त में विहार कर धर्म का उद्योत करते रहे। आचार्य आदिसागर ने आचारांग के अनुकूल आपका आचरण देखकर अपना उत्तराधिकारी बनाया और अपने पट्ट पर आसीन किया । आचार्य बनकर आपने चतुर्विधि संघ का कुशलता से संचालन किया। भारत के अनेक प्रान्तों- दक्षिण महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मालवा, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार आदि में भ्रमण कर दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार किया व अनेक मुनि आर्यिका, श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आदि बनाकर आत्म कल्याण में लगाया । उपसर्ग विजेता- आचार्य श्री महान उपसर्ग विजयी और साधुरत्न थे । आपकी क्षमाशीलता, साहस और क्षमता का परिचय अनेक घटनाओं से मिलता है 1 एक बार आप बड़वानी सिद्ध क्षेत्र पर ध्यानमग्न थे। किसी दुष्ट पुरुष मधुमक्खियों के छत्ते पर पत्थर फेंक दिया। मधुमक्खियों ने आचार्य श्री पर आक्रमण कर दिया । लहुलुहान होकर भी आपने ध्यान नहीं छोड़ा। इसी प्रकार आप खण्डगिरि उदयगिरि क्षेत्र की यात्रा पर जा रहे थे कि पुरुलियां में तीन शराबी लोगों ने आकर उन्हें अकारण ही मारने के लिए लाठियां उठाईं। सेठ चांदमल जी ने अपने गुरु की रक्षा करने के लिए स्वयं लाठियां खाई परन्तु फिर भी कुछ तो आचार्य श्री को लगीं। पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट ने आकर शराबियों को खूब फटकारा। दुष्ट लोग क्षमा मांग कर भाग गये । एक बार पूज्य आचार्य श्री तीर्थराज सम्मेद शिखर जी पर टोंक वंदना करने गये। तब रात्रि में जल मंदिर में ठहर गये। उस समय अगहन माह की कड़कड़ाती सर्दी थी । श्वेताम्बर कोठी के कर्मचारियों ने दुष्टतावश पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 47 *
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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