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________________ पद्मावतीपुरवाल जैन जाति की उत्पत्ति और विकास - श्री महेन्द्रकुमार जैन, बी. ए. आगरा किसी भी जाति का इतिहास लिखना स्वयं में एक कठिन कार्य है। ऐतिहासिक ठोस प्रमाणों के अभाव में एवं निरन्तर ध्वस्त हो रहे सामाजिक मूल्यों के परिवर्तनों से किसी अकाट्य निष्कर्ष पर पहुंचना स्वयं में एक कठिन कार्य है । आज का मानव हजारों जातियों में बंटा हुआ है। स्वयं भारत में ही 3000 जातियां निवास करती हैं। जैन संसार भी अपने 84 खेमों में बंटा हुआ है। इसमें कौनसी जाति अविच्छिन्न रूप से जैनधर्मावलम्बी है, यह कहना भी कठिन है । वास्तविक बात तो यह है कि धार्मिक मान्यताओं के कारण जातियों का क्रमबद्ध इतिहास लिखना या उनके जन्म का समय खोजना गोलाई में चक्कर लगाना है। किसी भी जाति की उत्पत्ति, विकास, जीवनकाल, मान्यताओं, प्रथाओं एवं सामाजिक संरचना की जटलताओं में उलझकर एक सर्वमान्य मत स्थापित करना असाधारण श्रमसाध्य कार्य हैं । हमें निश्चय ही किसी भी जाति का प्राचीन साहित्य एवं विकास क्रम को टटोलना होगा । किंवदन्तियों के सहारे तथ्यों का एकीकरण करना होगा। साथ ही अन्य जातियों के इतिहास, विद्वानों की राय एवं प्राचीन श्रुतज्ञान के सहारे सम्भवतः किसी तथ्य को निकालने में सरलता होगी। पद्मावती पुरवाल जैन जाति समस्त जैन विश्व में अपनी कुछ विशेषताओं को समेटे हुए है। कहा जाता है कि यह वर्तमान की चौरसी जातियों में पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास 398
SR No.010135
Book TitlePadmavati Purval Digambar Jain Jati ka Udbhav aur Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjit Jain
PublisherPragatishil Padmavati Purval Digambar Jain Sangathan Panjikrut
Publication Year2005
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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